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________________ ४२ मंदिर और मूर्ति के मानने वाले भी इस कल्पना को ही मूर्त स्वरूप प्रदान करके उपासना करते हैं । कल्पना करके अथवा साक्षात् मूर्ति बनाकर उपासना करना, दोनों का ध्येय एक ही है । इतना अंतर अवश्य है कि काल्पनिक मनोमंदिर क्षरणस्थायी है जब कि साक्षात् मंदिर तथा मूर्ति चिरस्थायी है । सर्वश्रेष्ठ तो यह है कि चिरस्थायी दृश्य मंदिरों में जाकर भगवान् की शांत मुद्रायुक्त मूर्ति की भक्तिभाव पूर्वक पूजाअर्चना करके आत्मकल्याण करना, पर क्षरण विध्वंसी काल्पनिक और अदृश्य मूर्ति मात्र से संतोष नहीं मान लेना क्योंकि ऐसे संतोष में स्पष्ट रूप से भक्ति की कमी रहती है । मूर्ति का शुभावह आलंबन : इतने विवेचन से यह स्पष्ट हो गया होगा कि जितनी प्राचीनता संसार के इतिहास की है उतनी ही प्राचीनता मूर्ति पूंजा की है । इसीलिये विश्व के इतिहास के साथ ही संसारी जीवों के कल्याणार्थ परम आवश्यक मूर्ति पूजा का इतिहास भी प्राप्त होता है । जीवों के कल्याण और मूर्ति पूजा, दोनों का परस्पर घनिष्ट संबंध है । परम पुरुषों की मूर्तियों के शुभावह आलंबन से संसारी आत्माओं की पापवासना मंद पड़ती है, विषय - कषाय का वेग घटता है, आरंभ - परिग्रह के त्याग की भावना का जन्म होता है, सन्मार्ग की ओर अग्रसरता स्थायी बनती है और सदा उच्च गुणों का आदर्श मिलता रहता है । मूर्ति पूजा का विरोध उत्पन्न होने का काररण : मूर्ति पूजा प्राचीन तथा कल्याणकारी होने पर भी उसका विरोध कब से, किसके द्वारा और किस कारण से हुआ, इसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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