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सभी को अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिये सर्व प्रथम मूर्ति की ही आवश्यकता होती है। धार्मिक, व्यवहारिक अथवा वैज्ञानिक, किसी भी क्षेत्र में मूर्ति के आकार को माने बिना नहीं चलता। मूर्ति एवं आकार को मानने का सिद्धान्त विश्व व्यापक है।
सुवर्ण और उसमें रहने वाले पीलेपन को तथा रत्न और उसमें बसी हुई कांति को जिस प्रकार कभी अलग नहीं किया जा सकता वैसे ही विश्व से उसके आकार की मूर्ति को भी पृथक नहीं किया जा सकता। समस्त विश्व की प्रकृति ही इस तरह मूर्ति एवं आकार को धारण करने वाली है। ऐसी दशा में मूर्ति को नहीं मानना एक प्रकार से विश्व की प्रकृति का ही खून करने के बराबर है।
मूर्ति पूजा की परम आवश्यकता :
मुमुक्षुमात्र का अंतिम ध्येय जन्म, जरा और मरण आदि दुःखों का अन्त कर अक्षय सुख को प्राप्त करना है। इस महान् कार्य की सिद्धि के लिये सर्व प्रथम आवश्यकता श्रेष्ठ साधनों को प्राप्त करने की है। चंचल चित्त, उच्छृखल इंद्रियां, विषम विषयों एवं कटु कषायों पर विजय प्राप्त हो सके, ऐसा उत्तम साधन शुक्ल ध्यानावस्थित और शांत मुद्रायुक्त श्री जिनेश्वर प्रभु की मनोहर प्रतिमा से बढ़कर दूसरा कोई भी नहीं है भले ही वह मूर्ति फिर पत्थर, लकड़ी, धातु, मिट्टी, रेती या किसी भी पदार्थ की बनी हो ।
ईश्वर की उपासना यदि धर्म का एक मुख्य अंग है तो उसकी सिद्धि के लिये मूर्ति की आवश्यकता से कोई भी इन्कार
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