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- सचित्त पानी, वायुवीभन, अग्निसमारम्भ, वनस्पतिभक्षण, कच्ची मिट्टी और कच्चा नमक जिसने छोड़ दिया हो उसको पूजन के विधान में प्रवृत्त नहीं होने का है । इस पर भी जो धन कमाने अथवा शरीर शुश्र षादि के लिये लेशमात्र दया के विचार से रहित है, अभक्ष्य एवं अनंतकाय तक के पदार्थों का सेवन जिसने नहीं छोड़ा ऐसे लोग केवल जिन पूजा के लिये काम में लाये जाने वाले जल, पुष्प आदि की विराधना को ही जो बड़ा रूप दे देने में प्रयत्नशील हों तो समझना चाहिये कि वे मिथ्यात्व से ग्रस्त एवं भयंकर दुराग्रह से पीड़ित हैं।
पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि और प्रत्येक वनस्पति : द्विइन्द्रिय तेइन्द्रिय तथा चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य, देवता और नरक वगैरह स्थानों में रहने वाले जितने भी जीव हैं इनसे, भी अनंतगुणे जीव सुई के अग्रभाग जितने अनंतकाय में हैं। इनका उपभोग करने में भी जिनको संकोच नहीं ऐसे लोग पृथ्वी आदि के अनंत भाग के जीवों से होने वाली स्वरूप हिंसा की बात को आगे कर श्री जिन पूजा जैसे परमोच्च कर्तव्य को धिक्कारते हैं, यह बात ही बताती है कि उनकी दशा अत्यंत शोचनीय तथा विवेकहीनता की पराकाष्ठा को पहुंची हुई है। किसी सती को अपने पति के साथ बात करते देखकर यदि कोई वैश्या उसकी हँसी करे अथवा तिरस्कार करे तो उसका यह कार्य जितना नासमझी का है उतना ही अथवा इससे भी बढ़कर नासमझी का कार्य उन लोगों का है। द्रव्य और भाव दया :
श्री जिनेश्वर देव के मनोहर मन्दिर, उनमें प्रतिष्ठित रमणीय प्रतिमाएँ तथा उनका प्रानन्ददायक पजन आदि
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