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पंचेन्द्रिय के वध वाला कार्य धर्मकार्य माना भी नहीं जा सकता क्योंकि यह मानवता के भी विरुद्ध है।
अहिंसा से चारित्रावरणीय कर्म जैसे नाश होते हैं वैसे ही सर्वविरति के ध्येय से होने वाला पूजन भी चारित्रमोहनियादि दुष्ट कर्म की प्रकृतियों का नाश करता है। दोनों से एक ही कार्य की सिद्धि होने से अहिंसा तथा श्री जिनपूजन उत्सर्गअपवाद रूप बन सकते हैं परंतु स्वर्गादि समृद्धि के लिये पंचेन्द्रिय जीव का वध करके पूजन करने में हिंसा और परिग्रह दोनों पापों का पोषण होता है और इससे उत्सर्ग अपवादरूप नहीं बन सकता । प्राप्त किये हुए संयम को बनाये रखने के लिये नदी उतरने में लाभ होता है तो अप्राप्त संयम की प्राप्ति के लिये देवपूजादि में प्रवृत्त होने वाले को लाभ क्यों नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य होगा ही। ___ श्री जिनेश्वरदेव की पूजा के पीछे गुणप्राप्ति, वैराग्य, मार्गानुसारिता, दुःखक्षय और कर्मक्षय आदि आत्मकल्याणकर वस्तुओं का ही ध्येय है। ऐसे उत्तम ध्येय से पूजन करने वाला यदि हिंसा के फल को प्राप्त होता है तो फिर अहिंसा के फल को कौन प्राप्त कर सकता है ? इसकी खोज करना असंभव है। श्रावक यदि द्रव्यपूजन करता है तो अपने व्रतनियमों का भंग करके तो नहीं करता। . श्री जिनेश्वर देव की पूजा में पशु आदि का अथवा अभक्ष्य पदार्थों का नैवेद्य नहीं रखा जाता और न अपेय वस्तुओं से प्रक्षालन करना होता है । बड़ा झूठ अथवा बड़ी चोरियां करके भी पूजन करने का नहीं होता । कम से कम देशविरति धर्म की भूमिका से नीचे गिराने वाला एक भी कार्य श्री जिनपूजा में करने का नहीं होता।
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