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________________ जा सकता कि ऐसा कहकर वह अपनी महत्ता बताने का प्रयत्न करता है। उसी प्रकार ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि सुपात्र-दान का उपदेश देने वाला साधु स्वार्थी है।. ___कोई साधु उपदेश देते समय यह कहे कि 'साधु महात्मा के नाम-गोत्र के श्रवण मात्र से बहुत लाभ होता है और उनके सम्मुख जाकर वंदन-नमन करने, सुखशाता पूछने तथा उनकी अनेक प्रकार से पर्युपासना करने में तो अनहद लाभ है" । यह उपदेश किसी व्यक्ति विशेष को लक्ष्य कर नहीं दिया गया है . अतः ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उपदेशक अपनी स्वयं की पूजा का अभिलाषी है। साथ ही हम यह भी नहीं कह सकते कि साधु के सम्मुख जाने आदि में होने वाली जीव विराधना के पाप का भागी वह उपदेशक बनता है। उपदेशक का इरादा तो श्रीता के प्रात्मकल्याण का है न कि जीव विनाश का । श्री जिनेश्वर देव तो क्षीण मोही एवं वीतराग हैं। उन पर स्वयं की पूजा की अभिलाषा का आरोप लगाना पूर्णतया अज्ञानता का कार्य है। पूजा में हिंसा की बातें करने वाले की दशा : सर्वविरति चौदह राजलोक के सर्व जीवों को अभयदान देने स्वरूप है। इसकी प्राप्ति हेतु एकेन्द्रिय जीवों की स्वरूप हिंसा वाला पूजन न्याययुक्त तथा अधिक लाभदायी है। इस पूजन द्वारा एकेन्द्रिय से बढ़कर द्विइन्द्रिय आदि का वर्ग रक्षणीय है और परम्परा से एकेन्द्रिय वर्ग भी रक्ष्य है। पशुवध की पूजा में ऐसा नहीं है, कारण कि पंचेन्द्रिय से बढ़कर किसी जीव का वर्ग है ही नहीं और अपने भले के नाम पर होने वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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