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________________ ३२ वैभव अथवा सुख समृद्धि को सम्मुख रखकर उनको नहीं पूजता परन्तु वह तो प्रारम्भ परिग्रह और विषय कषाय के पूर्ण त्याग से सेवित अनगारपन की तथा प्राप्त की हुई अठारह दोष रहितपन की पूजा करता है । इस प्रकार भगवान् का पूजन सर्वविरति आदि गुणों की ओर अत्यन्त श्रद्धा धारण करके होता है अतः वह सर्वविरति को दिलाने वाला होता है । 'प्रभु पूजा के अर्थी थे' – ऐसा तो कहा ही नहीं जा सकता : ऐसा तर्क सम्भव है कि "श्री जिनेश्वर देव हिंसा का त्याग करने के लिये साधुओं को संसार - त्याग का उपदेश दें, तीव्र कष्टों को सहन करने का कहें तथा अन्त में प्रारण त्याग तक की बात कहें पर अपनी स्वयं की पूजा के लिये हिंसा आदि हो तो भी इसका निर्जरादि फल बतावें, तो क्या यह उचित है ?' 21 इसका जवाब यह है कि दूसरे मतों की अपेक्षा जैन मत में श्री जिनेश्वर ऐसी कोई एक आत्मा नहीं है । ऐसी आत्माएँ अनन्त हो गई हैं और अनन्त होने वाली हैं । इन सब आत्मानों की पूजनीयता का निरूपण करना तथा उसमें व्यक्तिगत पूजा के हेतु की कल्पना करना, यह सर्वथा विरुद्ध है । समुदाय की भक्ति के निरूपण में व्यक्तिगत पूजा के प्रवर्तकपने की कल्पना करना, यह भयंकर दोष दृष्टि है । कोई सज्जन दुर्जन की संगति से होने वाली हानि तथा सज्जन की संगति से होने वाले लाभ बतावे तो ऐसा नहीं कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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