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वैभव अथवा सुख समृद्धि को सम्मुख रखकर उनको नहीं पूजता परन्तु वह तो प्रारम्भ परिग्रह और विषय कषाय के पूर्ण त्याग से सेवित अनगारपन की तथा प्राप्त की हुई अठारह दोष रहितपन की पूजा करता है । इस प्रकार भगवान् का पूजन सर्वविरति आदि गुणों की ओर अत्यन्त श्रद्धा धारण करके होता है अतः वह सर्वविरति को दिलाने वाला होता है ।
'प्रभु पूजा के अर्थी थे' – ऐसा तो कहा ही नहीं जा
सकता :
ऐसा तर्क सम्भव है कि
"श्री जिनेश्वर देव हिंसा का त्याग करने के लिये साधुओं को संसार - त्याग का उपदेश दें, तीव्र कष्टों को सहन करने का कहें तथा अन्त में प्रारण त्याग तक की बात कहें पर अपनी स्वयं की पूजा के लिये हिंसा आदि हो तो भी इसका निर्जरादि फल बतावें, तो क्या यह उचित है ?'
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इसका जवाब यह है कि दूसरे मतों की अपेक्षा जैन मत में श्री जिनेश्वर ऐसी कोई एक आत्मा नहीं है । ऐसी आत्माएँ अनन्त हो गई हैं और अनन्त होने वाली हैं । इन सब आत्मानों की पूजनीयता का निरूपण करना तथा उसमें व्यक्तिगत पूजा के हेतु की कल्पना करना, यह सर्वथा विरुद्ध है । समुदाय की भक्ति के निरूपण में व्यक्तिगत पूजा के प्रवर्तकपने की कल्पना करना, यह भयंकर दोष दृष्टि है ।
कोई सज्जन दुर्जन की संगति से होने वाली हानि तथा सज्जन की संगति से होने वाले लाभ बतावे तो ऐसा नहीं कहा
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