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इसका सीधा और सरल उत्तर यह है कि ऐसा एक नियम है कि जिन गुणों की ओर जिस मनुष्य की अत्यंत श्रद्धा होती है वह उन गुरगों को प्राप्त करने के अध्यवसाय वाला होता ही है और उसे वह शुभ अध्यवसाय ही समय पर अनंत निर्जरा करवाने वाला बनता है। ऐसी निर्जरा से आत्मा निर्मल बनकर स्वयं के क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक गुरणों को प्राप्त करता है।
गुण प्राप्ति होने से गुणवान के वचनों के प्रति श्रद्धा बढ़ती है। इस श्रद्धा की तीव्रता में ज्यों ज्यों वृद्धि होती है त्यों त्यों गुणवान के वचनानुसार आचरण करने की आत्मा में तत्परता जागती है तथा आचरण की इस तत्परता में से बाहरी व भीतरी सभी संयोगों का भोग देने की तैयारी उत्पन्न होती है। इसी का नाम सर्वविरति है। इस प्रकार परम्परा से प्रभु मूर्ति का पूजन सर्वविरति के ध्येय को पहुँचने का साधन बन सकता है। इतना अवश्य है कि श्री जिनेश्वर भगवान् की प्रतिमा को पूजने वाले सभी लोग उसी भव में सर्वविरति के ध्येय को पहुँच जायें, ऐसा नहीं होता है।
सर्वविरति अंगीकार करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इसी भव में मोक्ष प्राप्ति नहीं होती तो भी सर्वविरति की आराधना निष्फल नहीं मानी जाती । इस प्रकार कई भवों तक विराधना का वर्जन तथा आराधना का संपादन होने के पश्चात ही सर्वविरति भवांतर में मोक्ष प्रदान करती है। इसी प्रकार प्रविधि से बचता हुआ विधि को साधता हुआ द्रव्य पूजा करने वाला, भवांतर में सुगमता से सर्वविरति तक पहुँच सकता है। कारण कि श्री जिनेश्वर भगवान् की पूजा करने वाला इनके राज
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