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________________ ३० इसका उत्तर यह है कि साधुओं के द्वव्य पूजा नहीं करने का कारण यह नहीं है कि यह हिंसा कार्य है परन्तु यह है कि वे द्रव्य के त्यागी होते हैं । अधिकार विशेष से ही क्रिया विशेष होती है । द्रव्यपूजा के अधिकारी द्रव्य को धारण करने वाले होते हैं वहां साधुत्रों को स्नान नहीं करने की प्रतिज्ञा होती है जो द्रव्य पूजा के लिये आवश्यक है । इसलिये साधुनों के लिये यह कार्य उनकी प्रतिज्ञा के भी विरुद्ध हैं । गृहस्थ स्नान करने वाले होते हैं तथा द्रव्य के संगी भी । इसलिये भक्ति के निमित्त द्रव्य पूजा उनके लिये आवश्यक है और उसमें प्रमत्त योग नहीं होने से अनिवार्य रूप से होने वाला प्रारणव्यपरोपण हिंसा का रूप नहीं है । औषधि रोगी के लिये लाभदायक है अतः स्वस्थ वैद्य को भी इसका सेवन करना चाहिये, ऐसा नियम नहीं बनाया जा सकता । द्रव्य पूजन आरम्भ एवं परिग्रह के रोग से पीड़ित आत्माओं को उस रोग से छुटकारा दिलाने के लिऐ अर्थात् आरम्भ और परिग्रह के विचार एवं आचरण से दूर रखने के लिये विहित किया हुआ है । साधु आरम्भ और परिग्रह के रोग से मुक्त हैं अतः उनको द्रव्य पूजन रूपी औषधि लेने की आवश्यकता नहीं है । श्री जिन पूजा के साथ सर्व विरति के ध्येय की सुसंगतता : यहाँ पर एक दूसरा ऐसा तर्क भी उठने की संभावना है कि "पृथ्वी कायादि के आरंभमय द्रव्य पूजन से निरारंभमय सर्व विरति के ध्येय की सिद्धि किस प्रकार होती है ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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