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देखकर लघुकर्मी भव्यात्माएँ सम्यग्दर्शनादि श्रात्मगुणों को प्राप्त करने वाली बनती हैं तथा परंपरा से देश विरति, सर्वविरति आदि उच्च कक्षाओं को प्राप्त कर सर्व कर्म - रहित | बनकर अनंतकाल तक सभी लोकों के सभी जीवों को सभी प्रकार से प्रभयदान देने वाली बनती हैं । इसीलिये सम्यग् - दर्शनादि भाव धर्मों की प्राप्ति के साधनों को श्री जैनशासन ने परम उपकारक गिना है ।
जगत् में दया दो प्रकार की है : एक द्रव्यदया व दूसरी भावदया । द्रव्यदयां की अपेक्षा भावदया अनंतगुनी श्रेष्ठ है । द्रव्यदया केवल द्रव्य-प्रारणों के उद्देश्य से है तो भावदया भाव प्रारणों के उद्देश्य से है । द्रव्य-प्राणों का जीवन श्रल्पकाल का होता है ; भाव-प्रारण अनन्त काल तक रहते हैं । द्रव्य - प्रारणों के धारण-पोषण से होने वाला सुख थोड़ा और क्षरणस्थायी होता है तो भाव-प्रारणों के आविर्भाव से होने वाला सुख निरवधि एवं चिरस्थायी है ।
द्रव्यदया करने वाला केवल कुछ लोगों के कुछ दुःखों को कुछ समय के लिये दूर कर सकता है जबकि भावदया करने वाला सभी जीवों के सर्वकाल के दुःखों को दूर करने वाला अर्थात् उनको सदा के लिये दुःखों से मुक्ति दिलाने वाला होता है । सम्यग्दर्शनादि भाव गुणों की प्राप्ति के उपरांत मोक्ष प्राप्ति के अन्य साधन भी जैसे - सत्साधु समागम, इनके सुख से जगत् के तारक प्रकलंक श्री जिन वचन का श्रवण, सर्व विरतिमय शुद्ध जीवन का आचरण और परंपरागत अव्याबाध शाश्वत् पद की प्राप्ति आदि श्री जिनेश्वरदेव की पूजा श्रौर भक्ति आदि से अवश्य प्राप्त होते हैं ।
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