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विषय में इस बात का अनुभव प्रत्येक जिज्ञासु को प्रत्यक्ष सिद्ध है। जब किसी साधु का एक ही स्थान पर एक, दो या अधिक चातुर्मास हो जाते हैं तो ऐसे स्थान पर पक्षपात आदि के अनेक प्रसंग बन पड़ते हैं पर श्री जिनेश्वरदेव से अधिष्ठित मन्दिर सैंकड़ों अथवा हजारों वर्षों तक एक ही ढंग से धर्मवृत्तियों का 'पोषण करने वाले होते हैं तथा इसके आलंबन से सभी लोग समान धर्मीपन की भावना को दृढ़ बना सकते हैं। - श्री जैन शास्त्रों के कथनानुसार श्री तीर्थंकर देवों के विद्यमान काल में अर्थात् चौथे आरे में भी धर्मात्माओं की बस्ती वाले प्रत्येक गाँव में जिन मन्दिरों की अधिकता होती थी और ऐसे तारक मन्दिरों के पालम्बन से ही उस समय के लोगों को भी अनेक प्रकार के धार्मिक लाभ होते थे।
धन व्यय के लिये उत्तम स्थान :
. धर्म भावना को बनाये रखने के लिये जिस प्रकार मंदिरों की जरूरत है उसी प्रकार लोभ और परिग्रह के पाप से उपाजित द्रव्य के सद्व्यय के लिये भी जिन मन्दिरों की खास
आवश्यकता है । धर्म के लिये धन अर्जित करने का जैन शासन में कोई विधान नहीं है परंतु पाप संज्ञाओं के कारण उपार्जित दव्य का सदुपयोग करने का तथा उत्तम धर्म क्षेत्रों में दान देकर उत्तम फल प्राप्त करने का तो जैन शासन में विधान अवश्य है । । परमात्मा के उपदेश अथवा शासन से धर्म को प्राप्त । मात्मा संग्रह किये हुए अस्थिर एवं विनाशी द्रव्य का उपयोग, परमात्मा के मंदिर आदि के लिये न करे, तो वह रंक आत्मा सर्व समर्पण बुद्धि से, परमात्मा की आराधना के लिये कभी भी
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