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________________ सबसे पहले होती है। ठीक उसी भाँति देवभक्ति, गुरुभक्ति अथवा धर्मक्रिया आदि करने के लिये भी पृथक स्थानों के निर्माण बिना उनकी निर्विघ्न क्रियान्विति संभव नहीं है । जो लोग स्कूल, कॉलेज, युनिवर्सिटी, बोडिंग-हाऊस, ज्ञानशाला, दानशाला, धर्मशाला, औषधालय एवं प्रसूतिगृह आदि के निमित्त स्वतंत्र भवन की हिमायत करते हैं वे ऐसा कभी नहीं कह सकते कि देवभक्ति के लिये स्वतंत्र मकान की जरूरत नहीं है। फिर भी वे यदि ऐसा कहने के लिये तैयार हो जाते हैं तो समझ लेना चाहिये कि ऐसे लोगों को अन्य पदार्थों के लिये जो लगन है इतनी भी देवभक्ति के लिये नहीं है। अन्य सभी कार्य जितने आवश्यक हैं उतनी ही देवभक्ति भी आवश्यक है अथवा अन्य सभी कार्यों की तुलना में देवभक्ति अधिक आवश्यक है, ऐसा मानने वाला वर्ग ऐसे मनोहर एवं रमणीय देवालयों की आवश्यकता को स्वीकार किये बिना नहीं रह सकता जहाँ अधिक सुगमता पूर्वक देवभक्ति हो सकती है। देवभक्ति के लिये अलग से यदि विशाल और मनोहर चैत्य हों तब ही ऐसे क्षेत्रों में अच्छे साधुओं का आवागमन सुलभ एवं संभवित बनता है । अच्छे साधुओं को गहस्थों के वैभव और समृद्धि से कोई प्रयोजन नहीं होता; अतः जैसे तैसे क्षेत्रों में उनका विहार नहीं होता । सुसाधु अधिकतर ऐसे क्षेत्रों में विहार करते हैं जहाँ जिनेश्वर देव की भक्ति के लिये अधिक संख्या में सुन्दर चैत्यालय आदि बने होते हैं । इसका कारण यह है कि ऐसे ही क्षेत्रों में अच्छे श्रावकों और धर्मार्थी आत्माओं का विशेष रूप से होना सम्भव है। साथ ही साथ इसी कारण वहाँ संयम की सुरक्षा, वृद्धि आदि भी आसानी से हो सकती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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