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२२ ..'हृदय में भक्ति भाव के बिना भी दिखावे के कारण स्थापना की भक्ति करने वाले बहुत नजर आते हैं'-ऐसा तर्क करने वालों को समझना चाहिये कि यह स्थिति जिस प्रकार स्थापना के लिये है उसी प्रकार भाव अवस्था की भक्ति के लिये भी है । भाव अवस्था की भक्ति करने वाले सभी हृदय से व सच्चे भाव से ऐसा करते हैं-यह बात नहीं है । देखा देखी, लोभ, लालच, माया अथवा अन्य कुबुद्धि के वश होकर भी भक्ति करने वाले होते हैं। यही बात स्थापना के लिये भी संभव है परन्तु भावावस्था की भक्ति करने वालों की तरह कई ढोंगी और पाखंडी भी होते हैं इससे सभी वैसे हो जाते हैं, ऐसा तो कोई भी नहीं कह सकता। इसी तरह स्थापना की भक्ति करने वालों में भी कई झूठे होते हैं, पर इससे सभी वैसे हो जाते हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। । इस प्रकार आराध्य की अनुपस्थिति में उनके आदर से होने वाली फल प्राति के लिये स्थिर एवं शुद्ध भक्ति की आवश्यकता है। भक्ति की यह स्थिरता और शुद्धता आराधक की अत्यंत शुभ फल देने वाली होती है, यह निर्विवाद है ।' देवभक्ति के लिये पृथक चैत्यालय अनिवार्य है : ' स्थापना की भक्ति अपेक्षाकृत पूजक के अधिक आदर को सूचक है। यह बात सिद्ध होने के पश्चात् स्थापना की भक्ति आदि के लिये मंदिर आदि की कितनी अधिक आवश्यकता है, यह समझना और समझाना बहुत ही सुगम हो जाता है। कोई भी शुभ प्रवृत्ति उसके लिए अलग स्थान बिना स्थिर नहीं हो सकती हैं । - विद्याभ्यास या कला कौशल के अभ्यास के लिये विद्यालय, कॉलज एवं युनिवसिटी आदि स्वतंत्र भवनों की आवश्यकता
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