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जो अपने इष्ट परमात्मा को शास्त्रों एवं तत्त्वों के निरूपकं के रूप में मानते हैं उन्हें अपने इष्ट का देहधारण मानना ही पड़ेगा । कारण यह है कि देहधारण बिना मुख का होना असम्भव है और मुख बिना उपदेशक बनने की स्थिति भी असम्भव है । अपने परमात्मा को सर्वथा एवं सर्वदा शरोर रहित मानने वालों को यह भी मानना पड़ेगा कि इनके शास्त्र ईश्वर रचित नहीं परन्तु ईश्वर को छोड़कर किसी अन्य अल्प बुद्धि एवं अल्प शक्ति वाले के कहे हुए हैं और उनके शास्त्रों की प्रामाणिकता सर्वज्ञ एवं सर्व शक्तिमान परमात्मा के वचनों के बराबर कभी भी नहीं बन सकती है ।
जैनों की मान्यता :
जैन अशरीरी सिद्धों की पूजा करते हैं । इस देह रहित सिद्धावस्था को प्राप्त करने के लिये इन आत्माओं ने जो कुछ भी प्रयोग किये हैं वे उनकी साकार और देह युक्त अवस्था में ही किये हुए हैं अतः इस अवस्था की पूजनीयता भी जैनों को निश्चित रूप से मान्य है |
जैन परमात्मा को साकार और निराकार - दोनों ही रूपों में मानते हैं । साकार परमेश्वर को वीतराग एवं सर्वज्ञ मानने के साथ साथ ही वे उसे शास्त्र और तत्त्वों का उपदेशक भी मानते. हैं । इसीलिये इनको निराकार एवं साकार परमेश्वर की वे सभी अवस्थाएँ वंदनीय, नमनीय एवं पूजनीय हैं। यदि वे उपकारियों की ऐसी भावदशा को भी वंदनीय न मानें तो गुरणवान होते हुए भी वे सर्वगुण सम्पन्न आत्माओं का आदर करने वाले नहीं बन सकते तथा उपदेश आदि द्वारा स्वयं के ऊपर किये गये अतुलनीय उपकारों को नहीं पहचानने वाले साबित
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