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है । इन्हें अपना मत छोड़ना पड़ता है और फल की प्राप्ति भी नहीं होती । जो स्थापना में तनिक भी विश्वास नहीं रखते वे अपने सम्मुख किसको रख कर वन्दन, नमस्कार आदि करते हैं ? यह अत्यन्त विचारणीय है ।
किसी वस्तु को सामने रखे बिना जो वंदन, नमन करते हैं उन्हें विचार शून्य एवं अयोग्य आचरण करने वाले कह सकते हैं। अपने इष्ट की मानसिक मूर्ति की कल्पना कर, उसके सन्मुख वन्दन - नमस्कारादि करते हों, तो ऐसी अदृश्य एवं अस्थिर मूर्ति को वन्दन - नमन करने से यदि फल की प्राप्ति होती है तो दृश्य एवं स्थिर मूर्ति के सम्मुख साक्षात् वन्दन - नमन करने से अपेक्षाकृत अधिक ही फल मिलता है— इस बात से वे कभी इन्कार नहीं कर सकते । ऐसी मानसिक मूर्ति की कल्पना करने की शक्ति सामान्य व्यक्ति में सम्भव नहीं है । इतना ही नहीं परन्तु उस मूर्ति का कल्पित रूप ध्यान में लाने की शक्ति भी दृश्य एवं स्थिर मूर्ति को देखने से ही आ सकती है अतः सही रूप में कल्पित मूर्ति से दृश्य मूर्ति ही उपकारक होती है, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है ।
श्री जैन शासन के अनुयायी अपने इष्ट एवं उपास्य के रूप में सर्वज्ञ और वीतराग परमात्मा को मानते हैं । ये परमात्मा मोक्ष जाने से पूर्व थोड़े या अधिक समय तक देहधारी होते हैं, ऐसी भी जैनों की मान्यता है और इसीलिये इनको अपने आराध्य का तत्कालीन आकार अवश्य पूजनीय है । कभी भी देह धारण नहीं करने वाले परमात्मा शास्त्र - रचयिता कदापि नहीं बन सकते हैं |
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