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द्वषी परमेश्वर का नाममात्र जपने पर भी अपनी इष्ट सिद्धि हो जाती है-ऐसा मानने वाले उनकी प्रतिमा की पूज्यता (जिसमें नाम स्मरण अवश्य पा जाता है) में विश्वास न करें अथवा इससे इष्टसिद्धि होती है-ऐसा नहीं मानें-यह कैसे हो सकता है ? ___जो अपने इष्ट को सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापी मानते हैं उनका कहना है कि जिस भांति विशाल हाथी या पर्वत एक छोटे दर्पण में प्रतिबिम्बित हो जाता है और उस समय उसका आकार मात्र ही छोटा बनता है परन्तु उसके शरीर के सभी अवयव वैसे ही रहते हैं उसी भांति व्यापक ईश्वर की प्रतिमा की आराधना साक्षात् व्यापक ईश्वर की आराधना जितनी ही फलवती होती है। ... सामान्य व्यक्ति के जिए व्यापक ईश्वर की कल्पना असंभव है। ऐसा तो उसकी प्रतिमा द्वारा ही संभव होता है और उसकी उपासना में उपासक एकाग्रता से लग सकता है। साथ ही सर्वव्यापी ईश्वर उसकी मूर्ति में भी रहता ही है अतः उस मूर्ति में भी परमात्मा का अंश आ जाता है तथा उस मूर्ति की आराधना से परमेश्वर की आराधना अवश्य होती है। साथ ही व्यापक ईश्वर अवतार रूप में प्रकट होते हैं। उस समय उनको छोटा शरीर धारण करना पड़ता है। ऐसी दशा में इस अवस्था की पूजा के लिए भी मूर्ति को मानने की आवश्यकता होती है।
अब जो लोग गोखला आदि की स्थापना कर अपने इष्ट का वंदन, नमन आदि करते हैं उनको स्थापना में तो विश्वास करना ही पड़ता है परंतु इस स्थापना में प्राकार आदि का साम्य न होने से ऐसे लोगों की दशा दोनों ओर से भ्रष्ट होने जैसी बन जाती
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