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उनकी पूजा आदि द्वारा आराधक के परिणामों को निर्मल बनाती है ।
श्री वीतराग की साक्षात् उपासना भी जैसे श्री वीतराग को लेश भी उपकारक नहीं है, फिर भी वह पूजक के लिए उपकारक बनती है वैसे ही श्री वीतराग की स्थापना की उपासना भी श्री वीतराग को किसी भी प्रकार से लाभदायक नहीं होने पर भी, उपासकों को तो अवश्य लाभ करती है ? क्योंकि इससे उपासक को गुण, बहुमान, कृतज्ञता, विनयादि गुणों का पालन अवश्य सिद्ध होता है । दोष निवारण व गुरणप्राप्ति आदि की प्रेरणा भी अवश्य होती है । गुरण बहुमान आदि एक-एक कार्य भी महान् कर्म निर्जरा कराने वाला है, तो फिर वे समस्त कार्य जहां एक साथ सिद्ध होते हैं, ऐसे श्री वीतराग ( उनकी स्थापना द्वारा की जाती) उपासना सुज्ञ पुरुषों को अत्यन्त आदरणीय बनें, इसमें आश्चर्य भी क्या है ?
ईश्वर को विविध रूपों में मानने वालों के लिए भी स्थापना को स्वीकार करना ही पड़ता है :
अपने उपास्य को वीतराग मानने वाले को, अपने उपास्य की उपासना हेतु, जिस प्रकार मूर्ति आदि की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जो अपने आराध्य को वीतराग नहीं मानकर रागी मानते हैं, उनको भी, अपने आराध्य की उपासना के लिए उसकी स्थापना की आवश्यकता होती है । तथा राग-द्व ेष पूर्ण होते हुए भी अपने आराध्य को सर्वज्ञ मानने वाले उनकी प्रतिमा द्वारा होने वाली आराधना या विराधना से प्रसन्न अथवा अप्रसन्न होते हैं - वह स्वाभाविक है । ऐसे रागी और
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