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१५ प्रतिमा का पूजन आदि निरर्थक ठहरता, परन्तु यहाँ तो स्थापना के विषय में स्थाप्य परम उपास्य है।
साक्षात् आराध्य की उपासना से उपासक जिस प्रकार कार्य सिद्धि प्राप्त करता है। उसी प्रकार स्थाप्य की प्रतिमा की उपासना से भी उसकी कार्य-सिद्धि होती है।
यदि मूल वस्तु पूजनीय है तो उसका नाम भी पूजनीय बन जाता है। ऐसी स्थिति में उसका आकार आदि भी पूजनीय बन जाये तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? पूजा का फल पूजक के परिणाम पर आधारित है :
यहां इतना समझ लेना चाहिये कि जैन-शासन में उपास्य की भावावस्था की पूजा भी उपासक के शुभ परिणाम के अनुसार ही फल देती है, परन्तु उपास्य की प्रसन्नता अथवा अन्य किसी नियमानुसार नहीं! क्योंकि जैन-शासन के उपास्य तो वीतराग होने से वे कभी भी प्रसन्न-अप्रसन्न नहीं होते हैं, हां, व्यवहार की अपेक्षा से इतना कह सकते हैं कि वे तारक हमेशा प्राणी मात्र पर एक समान प्रसन्न रहने वाले तथा कृपा रस से भरपूर है- इतना होने से जब तक उपासक उनके प्रति सन्मुख वत्ति वाला अथवा आराधक मनोभाव वाला नहीं बनता है, तब तक वह कुछ भी फल प्राप्त नहीं कर सकता है।
आराधक को अपने शुभ परिणाम से ही तिरने का है, इस शुभ परिणाम की जागृति के लिए जैसे आराध्य का साक्षात् देह तथा उसका आकार जिस प्रकार वंदन-पूजन तथा नमस्कारादि में निमित्त बनता है, वैसे ही आराध्य की स्थापना भी
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