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अवस्था में कुशल कारीगर उसके प्लान को ही बार-बार देखकर भवन निर्माण के कार्य को पूरा कर सकता है। जब तक मकान पूरा नहीं बन जाता कारीगर को वह प्लान हर घड़ी अपनी नजरों के सामने रखना पड़ता है। ठीक उसी भांति अपनी आत्मा को उपास्य सम बनाने हेतु उपासक को, जब तक उपास्य जैसी निर्मलता प्राप्त नहीं हो जाती तब तक, उपास्य की स्थापना को प्रतिपल अपने सम्मुख रखना ही पड़ता है, यह सर्वथा स्वाभाविक है ।
ऐसी स्थिति में कई यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि-"शिल्पी की आवश्यकता भवन के प्लान को अपनी नजर के सामने रखने की है न कि उसकी पूजा करने की । वैसे ही उपास्य के समान बनने के लिये उपासक अपने आराध्य की मूर्ति को. अपनी दृष्टि के सम्मुख भले ही रख ले पर उसकी पूजा से क्या तात्पर्य ? कारीगर प्लान की पूजा करे यह जितना अघटित
और हास्यास्पद हैं, उतना ही अघटित और हास्यास्पद जड़ स्थापना का पूजन करने में है ऐसा मानने में क्या दोष है ?"
यह तर्क ऊपरी दृष्टि से जरा आकर्षक लगता है परन्तु तनिक गहराई से सोचने पर उसका खोखलापन स्पष्ट दिखाई देता है। कारीगर के लिए जिस मकान का प्लान निरंतर देखने योग्य है, वह मकान उपासना के योग्य नहीं है जबकि उपासक जिस देवकी प्रतिमा की पूजा करता है वह स्थाप्य उसके लिये वंदनीय, पूजनीय एवं उपासनीय है । प्लान का स्थाप्य (मकान) जिस प्रकार अपूजनीय है इसी प्रकार जिसकी प्रतिमा है वह स्थाप्य भी यदि अवन्दनीय, अपूजनीय होता तो अवश्य उसकी
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