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निरर्थक ही रहती है : वैसे ही उपास्य की स्थापना उपास्य की पहचान कराने का कार्य भले ही करती हो परन्तु सम्यग्दर्शनादि धर्म की प्राप्ति स्थापना से किस प्रकार हो सकती है ? इसके लिये वास्तविक गाय को दुहना जिस प्रकार आवश्यक है इसी प्रकार मूल उपास्य की उपासना सार्थक सिद्ध होती है।"
उनका यह तर्क अज्ञानजन्य ही है । इसमें दृष्टांत-दृष्टान्तिक का वैषम्य है । दूध द्रव्य है जबकि सम्यग्दर्शनादि धर्म गुण है। दूध रूपी द्रव्य की प्राप्ति गाय से करनी है। जबकि सम्यग्दर्शनादि धर्म की प्राप्ति उपास्य से नहीं करनी है परन्तु उपासक को तो उसे अपनी आत्मा में से ही प्रकट करना है। इसको प्रकट करने में उपास्य तो केवल माध्यम है।
जिस प्रकार उपास्य का मूल पिंड व उसका प्राकार निमित्त रूप.बनता है इसी प्रकार उपास्य की स्थापना भी वैसे निमित्त रूप बन ही सकती है। उपासक जैसे उपास्य की उपस्थिति में उसके मूल आकार की सेवा-भक्ति से सम्यग्दर्शनादि गुणों को ढकने वाले आवरणों को हटाकर स्वयं के आत्मगुणों को प्रकट कर सकता है, वैसे ही उपास्य की अनुपस्थिति में उपास्य की स्थापना की सेवा-भक्ति द्वारा भी उपासक उन गुणों को ढकने वाले प्रावरणों को हटाकर आत्मगुणों को अवश्य प्रकट कर सकता है। कारीगर को मकान पूजनीय नहीं पर हमें देव पूजनीय हैं :
उपास्य की अनुपस्थिति में उसकी उपासना उपासक के लिये किसी मकान के प्लान के समान है। मकान की अनिर्मित
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