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________________ १२ होते हैं। पहचान, स्मरण अथवा भक्ति के लिये भाव पदार्थ में निहित आकार अथवा भिन्न पदार्थ में निहित आकार समान कार्य करता है। तीर्थंकर, श्री गणधर तथा अन्य इष्ट एवं आराध्य पुरुष अपने-काल में स्वयं के प्राकार से ही पहचाने जाते थे क्योंकि अवधि, मनः पर्यव आदि अतीन्द्रिय ज्ञानों को धारण करने वाले महर्षि भी तीर्थंकरों के अमूर्त अात्मा अथवा उनके गुणों का प्रत्यक्ष ज्ञान करने में समर्थ नहीं थे। वे भी उन महर्षियों को उनके औदारिक देह रूपी पिंड अथवा उनके आकार से ही पहचानते थे। तो फिर अतीन्द्रिय ज्ञान रहित अन्य छद्मस्थ आत्माएं उन्हें उनके पिंड अथवा आकार से ही पहचान पाते हैं—इसमें विशेषता क्या है ? उपास्य को पहचानने अथवा उनका परिचय कराने का कार्य जैसे उनके मूल आकार से होता है वैसे ही अन्य वस्तु में स्थापित उपास्य के आकार से भी वह कार्य हो जाता है। इससे उपास्य की आकारमय स्थापना भी उपासक के लिये उपास्य के समान ही माननीय, पूजनीय एवं वंदनीय बन जाती है। यह बात अविवादास्पद है। पत्थर की गाय दूध भले ही न दे परप्रतिमा-पूजन से उसके गुणों को तो प्रकट किया हीं जा सकता है : . यहाँ पर कई ऐसा तर्क करते हैं कि "पत्थर की गाय आदि उन वस्तुओं को पहचानने के लिये उपयोगी भले ही साबित हो पर दूध देने के लिये तो वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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