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________________ २० होते हैं। ऐसी स्थिति निष्ठुर एवं कृतघ्न की ही सम्भव है; अन्य की नहीं। वीतराग, सर्वज्ञ तथा तत्त्वोपदेशक परमेश्वरों की पूजनीयता को स्वीकार करने में किसी भी सज्जन व्यक्ति को तनिक भी आपत्ति नहीं हो सकती। ___ गुण-बहुमान एवं कृतज्ञता आदि गुणों की किंमत समझने वाले नो, ऐसे सर्वश्रेष्ठ, उपकारी तथा महानतम गुणों से युक्त महापुरुषों को सेवा, पूजा, आदर, भक्ति, वन्दन, स्तुति आदि अधिक से अधिक हों इस बात में विश्वास रखते हैं । इस सेवा पूजा से उन पूजनीय महापुरुषों को कोई लाभ न होते हुए भी उनमें ध्यान लगाने वाले आत्माओं को अपने पवित्र उद्देश्य के परिणामस्वरूप कर्म निर्जरादि उत्तम फल को प्राप्ति अवश्य होती है। श्री जैन शासन में पूजा की फल प्राप्ति हेतु पूज्य की प्रसन्नता की अपेक्षा पूजक को शुभ भावना को ही आधारभूत माना गया है। पूज्य की भाव, अवस्था का पूजन भी उपासक की गुण ग्राहकता तथा कृतज्ञतादि गुणों के आधार पर ही फल देने वाला होता है। ऐसी दशा में इन्हीं गुरणों के शुभ अध्यवसाय से तथा आत्म शुद्धि को प्राप्त करने के शुभ संकल्प से प्रतिमा के माध्यम से पूज्य का वंदन, उपासन आदि हो तो वे कर्म निर्जरादि उत्तम फल को निश्चित रूप से देने वाला होता है। स्थापना द्वारा आराधना करने वालों की सापेक्ष महत्ताः .... 'देव-गुरु आदि की आराधना से होने वाली कर्म निर्जरा प्राराध्य द्वारा प्रदत्त नहीं होती, किन्तु देव-गुरु आदि के मालम्बन के कारण आराधक को हुए शुभ परिणाम के अधीन है',यह बात हम ऊपर देख चुके हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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