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________________ २७२ इस प्रकार अनेक दृष्टियों से विचार करने पर मूर्तिपूजा मनुष्य की बुद्धि को जड़ न करके अधिक शुद्ध, अधिक भक्ति वाली और अधिक आध्यात्मिक करने में समर्थ होती है। स्थानस्थान पर निर्मित देवालयों एवं मंदिरों से, आर्य प्रजा के इस आध्यात्मिक बल की रक्षा होती है, जबकि मूर्ति पूजन की विधि के प्रति दुर्लक्ष्य होने से तथा व्यवस्थापकों के अज्ञान से अध्यात्मबल, कई स्थानों में केवल नाम मात्र का ही देखने में आता है, फिर भी यह नाम मात्र का अध्यात्मबल भी मूर्ति पूजन रहित - स्थानों की प्रजाओं के अध्यात्मबल की तुलना में सैंकड़ों गुणा श्रेष्ठ है। स्थान स्थान पर देवालय होने से अनेक बार रास्ते में चलते-चलते आर्य प्रजा को ईश्वर के प्रति अपनी वृत्ति को अभिमुख करने का अवसर प्राप्त होता है। कितने ही कहते हैं कि, मूर्तिपूजा में दूसरा कोई दोष नहीं पर इसकी आड़ में स्वार्थी लोग कई प्रपंच चलाते हैं और भोली प्रजा को लूटते हैं। ऐसे दुष्टों की स्वार्थ सिद्धि न हो, इस हेतु मूर्तिपूजा को रोकना चाहिये। यह विचार 'भैंस की भूल और भिश्ती को सजा' देने जैसा है। मूर्तिपूजा को आड़ में मूर्तिपूजक खूब खाते पीते हैं और प्रजा को ठगते हैं तो मूर्ति को नहीं मानने वाला, क्या यह सब कुछ नहीं करता ? मूर्ति को नहीं मानने वाले, सभी क्या अपना निर्वाह ईमानदारी से करते हैं ? क्या वे सभी नोति के सिद्धान्तों का तन मन से अनुसरण करते हैं ? यदि ऐसा नहीं है तो जैसे दोष होने पर भी अमूर्तिपूजकों को निभा लिया जाता है वैसे ही मूर्तिपूजकों में भी कोई दोषयुक्त हो तो उसके प्रति घणा रखने से क्या लाभ ? उनको तो "सुधारने का प्रयत्न करना चाहिये। किसी भी दृष्टि से योग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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