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________________ २७१ है और इस मूर्ति में मन को लगाने के अभ्यास से धीरे-धीरे अंत:करण का बल बढ़ने से अधिक सूक्ष्म पदार्थों में अथवा धर्म में एकाग्रता साधी जा सकती है।। ___ मूर्तिपूजन में अंतःकरण का बल बढ़ने के, जो जो नियम हैं वे सभी प्राश्चर्यपूर्ण ढंग से बने हुए हैं। मूर्ति में ईश्वर की भावना कर मूर्तिपूजक उसकी पूजा-अर्चना करता है, जिससे उस समय उसके अंतःकरण में अधिक ऊँची भावना रमण करती है। उसे स्नान, वस्त्र, अलंकार, नैवेद्य आदि समर्पित करने से अंतःकरण में परमेश्वर संबंधी प्रेम और भक्ति का पोषण होता है। — मूर्ति के रूप में एक स्थान में परमेश्वर का आरोप किया हुप्रा होने से उतने ही स्थान में उसकी वृत्ति शीघ्र एकाग्र बनती है। वह जितने समय तक पूजन करता है उतनी देर उसकी वृत्तियाँ, जो कि ऊपर से देखने पर जड़ पदार्थ के आश्रित दिखाई देती हैं, वास्तव में जड़ में आगेपित ईश्वर-तत्त्व का प्रति पल संबंध जोड़ने के लिए छटपटाती हैं। इससे उसके अंत करण में ईश्वर संबंधी विचारों का एक शुद्ध द्रव्य जमता जाता है और उस द्रव्य में नित्य अभ्यास की वृद्धि के साथ ईश्वर में उसका प्रेम और भक्ति बढ़ती जाती है। इसके साथ जिस स्थान में वह मतिपूजन करता है, उस स्थान का वातावरण भी उसके पवित्र विचारों द्वारा अधिक से अधिक पवित्र बनता जाता है और सदैव ऐसा होने से अंत में उस देवगृह की पवित्रता एवं आध्यात्मिकता किसी विलक्षण शांति को, भक्ति को और वृत्ति के उच्च भाव को प्रगट करने वाली होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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