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२७३ विचार से मूर्तिपूजा का खंडन नहीं किया जा सकता। मनुष्यों के स्वभाव में यह वृत्ति है।
मति को नहीं मानने वाले पाश्चात्य लोग भी अपनी प्रियतमा के सिर के बालों की कटी लता को प्रेम से, छाती से लगाते हैं, ईसाई कल्लित दाँत को और ऐसी ही सैंकड़ों वस्तुओं को अत्यंत प्रेम से पूजते हैं तथा मूर्तिपूजकों की अपेक्षा अधिक बाह्य प्राडम्बर करते हैं। मूर्तिपूजा को तिरस्कार से देखने वाले कब्र पर पूल चढ़ाते हैं, धार्मिक पुस्तकों के प्रति बहुत
आदर भाव रखते हैं, अपने राजा-रानी, नेता या बड़े सरदार के पुतले का कोई दुर्जन अपमान करे तो वे बड़ा अपमान हुआ मानते है, स्वतंत्रता के झंडे की शोभायात्रा निकालते हैं और जिस २ रास्ते से वह शोभायात्रा जाती है उस २ रास्ते के सभी लोग झंडे को देखकर अपनी टोपी उतार लेते हैं।
इस प्रकार मूर्तिपूजा सर्वत्र व्याप्त है और उसमें बड़ा सत्य समाया हुआ है । जो मूर्ति पूजा करते हैं, वे पाप नहीं करते पर अपना हित ही साधते हैं । मूर्तिपूजा अपने आप में दोषपूर्ण नहीं है, पर उसकी विधि लोगों को जैसी समझानी चाहिये वैसी बराबर समझाई नहीं गई, इतना ही दोष है । विधि न समझाने से और तो कोई नुकसान नहीं, पर मूर्तिपूजक आगे नहीं बढ़ते, इतनी ही हानि है और ऐसी हानि तो मूर्ति को नहीं पूजने वाले भी भोग ही रहे हैं। ___मूर्तिपूजक तो एक दो सीढ़ी भी आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़े हुए हैं जबकि मूर्ति को नहीं पूजने वालों की स्थिति तो किसी भी सीढ़ी में नहीं पाती। इसलिये मूर्तिपूजकों को अपने पूजन की विधि का उद्धार करने की जितनी आवश्यकता है... उतनी ही मूर्ति न मानने वालों को अपना घर सुधारने की है।
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