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________________ २६५ होते तो जगत् में वे वस्तुएँ जहाँ २ हैं उन सबकी वे पूजा करते परन्तु कोई भी मूर्तिपूजक अपने धर्म-स्थान में रहे पत्थर, लकड़ी के स्तम्भ, पानी पीने के पात्र अथवा आँगन में पड़ी मिट्टी को कभी नहीं पूजते । यदि पाषाण आदि की आकृति को ही ईश्वर मानते होते तो मूर्तियाँ बेचने वाले की दुकान पर जाकर उसको वंदन करते और वस्त्र, अलंकार अथवा नैवेद्य आदि समर्पित कर देते परन्तु इस प्रकार कोई भी मूर्तिपूजक करता हुआ देखा नहीं गया । इससे सिद्ध होता है कि-मूर्तिपूजक मूर्ति को ही ईश्वर नहीं मानते किन्तु मति रूपी द्वार के माध्यम से वे किसी अन्य अगम्य वस्तु को ही ईश्वर मानते हैं तथा उसकी अर्चना, पूजा अथवा भक्ति करते हैं । अगम्य ईश्वर का बोध करने के लिये मूर्तिपूजक, मूर्ति का आश्रय लेता है, इसमें बुराई क्या है ? लाखों मील विस्तार वाली पृथ्वी का ज्ञान विद्यार्थी को क्या एक छोटे घड़े जितनी मिट्टी के गोले से अथवा तीन साढ़े तीन फीट चौरस नक्शे से नहीं कराया जा सकता ? आकाश में उदित द्वितीया के चंद्रमा को देखने के लिये, क्या कोई छप्पर या पेड़ पर, देखने वाले की दृष्टि प्रारंभ में स्थापित नहीं की जाती ? सूक्ष्म वस्तु का भान कराने के लिये स्थूल पदार्थों का आश्रय इस जगत् में सभी जगह बुद्धिमान् लोग लेते हैं, तो सूक्ष्मातिसक्ष्म परमेश्वर का ज्ञान करवाने के लिये और भक्ति प्रगट करने के लिये शास्त्रकार महर्षिों ने मूर्ति की योजना की हो, तो उसमें आश्चर्य चकित होने जैसा क्या है ? अगम्य वस्तु का ज्ञान हमेशा जानी-पहचानी बस्तुओं द्वारा ही कराया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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