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वान पुस्तकें भी मुंह में डालकर तोड़ने-फोड़ने जैसी हो लगेगो अथवा खेलने के साधन रूप ही लगेगी ! परंतु जिनको भाषाज्ञान हो चुका है और जिससे वे अक्षरों की मूर्ति के पीछे रहने वाले ज्ञान रूपी प्रकाश को देख सकते हैं, वे भो क्या पुस्तकों को तुच्छ बुद्धि वाले कुत्ते, बिल्ली की भाँति दाँत में डालकर तोड़ने• फोड़ने अथवा खेलने के साधन रूप मानेंगे ?
मनुष्य देह मिलने पर भी तथा कुत्ते से हजार गुणी अथवा लाखगुरणी बुद्धि मिलने पर भी, 'मूर्ति निराकार वस्तु का बोध नहीं करवाती तथा ज्ञान के रहस्य को प्रकाश में लाने में असमर्थ है, ऐसा बुद्धिमान् लोग माने, इसके समान असंगत बात और क्या हो सकती है ? ज्ञान की जानकारी का द्वार यदि मूर्ति है तो फिर ज्ञान स्वरूप परमेश्वर को जानने का द्वार भी मूर्ति ही होगा, इसमें आश्चर्य कैसा ? मूर्ति का प्राश्रय लिये बिना निराकर वस्तु का बोध किया जा सकता है, ऐसा जो मानते हैं, उनकी बुद्धि कुशाग्र नहीं पर कुठित है।
जगत् में जड़ व चेतन दो तत्त्व हैं। चेतन तत्त्व की शक्ति बतलाने का द्वार, जड़ तत्त्व है। मनुष्य की प्रात्मा अपने अस्तित्व का और अपनी सारी शक्तियों का भान देह रूपी जड़ मूर्ति द्वारा ही करवा सकती है। देह रूप जड़ मूर्ति के अभाव में, प्रात्मा ने अपने अस्तित्व का और स्वयं की शक्तियों का ज्ञान दूसरों को कराया हो, ऐसा एक भी उदाहरण नहीं दिया जा सकता।
बिजली और वाष्प की अपार शक्ति भी जड़ यंत्रों का आश्रय लेकर ही बताई जा सकती है तथा काम में ली जा सकती है। केवल चैतन्य अथवा केवल निराकार अक्रिय ही होता है । कर्ता साकार साधनों द्वारा ही क्रिया कर सकता है।
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