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इस स्थिति का कारण यह है कि आज के अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों में से ७५ या ६० प्रतिशत लोगों को, ईश्वर को मानने की श्रावश्यकता महसूस नहीं होती । धर्म करना, बेकारों का काम लगता है । शालाओं के शिक्षक भी ६६ प्रतिशत संस्कार रहित होते हैं श्रौर बालकों के कोमल मस्तिष्क पर निरन्तर इस बात के कुसंस्कार देते रहते हैं कि धर्म बुरा है, झूठा है ।
अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों को अच्छे और बड़े मानने वाले सैंकड़ों लोग, उनके वचनों को देववारणी की तरह सच्चा मान बैठते हैं । प्रज्ञान अंधकार का भ्रम शास्त्र के प्रकाश के बिना कभी भी नहीं टल सकता । जिस प्रकार ज्योतिष शास्त्र को समझने के लिये बारह या अठारह वर्ष तक कठोर परिश्रम से अभ्यास करना चाहिये और तभी वह समझ में आता है । अन्यथा वह भ्रम, ठग विद्या जैसा लगता है । उसी प्रकार मूर्ति और उसकी पूजा का रहस्य समझने के लिये भी वर्षों तक धैर्यपूर्वक अभ्यास करना चाहिये। मंत्रशास्त्र, योगशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद आदि शास्त्रों और विद्याओं को जानने तथा उनका सच्चा रहस्य समझने के लिये वर्षों तक परिश्रम की आवश्यकता रहती है । वैसे ही अध्यात्मशास्त्र के अंगभूत परमात्म-प्रतिमा-पूजन आदि का सच्चा रहस्य समझने के लिये भी दीर्घकाल तक परिश्रम की आवश्यकता रहती है ।
अंग्रेजी पढ़े लिखों में भी बहुत से उत्तम वृत्ति के होते हैं, सत्य को खोजने की जिज्ञासा वाले होते हैं और वे जो स्वीकार करते हैं, उसे अंत:करण के विश्वास के बाद ही शुद्ध बुद्धि से स्वीकार करने वाले होते हैं, परन्तु ऐसे लोग भी अध्यात्मशास्त्र के लिये सत्य को खोजने का तनिक भी कष्ट नहीं उठाते तथ
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