SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५७ . ज्ञान का खंडन करते समय जैसे ज्ञान का मंडन हो जाता है, वैसे ही मूर्ति का खंडन करने वाला स्वयं अनजाने ही 'मूर्ति' का ही मंडन कर देता है। 'मूर्ति' अथवा उसको पूजा का खंडन करने वाले अपने विचार दूसरों को समझाने हेतु अक्षराकार मूर्तियों का आश्रय लेते हैं, क्योंकि उनके विचारों को प्रतिपादित करने वाली पुस्तकें निराकार विचार को समझाने वाली एक प्रकार की मूर्तियाँ ही हैं । मूर्ति अथवा उसकी पूजा के विरुद्ध मत रखने वाले, मूर्तिपूजकों की सच्चे-झूठे अनेक तरीकों से निंदा करने का धंधा लेकर बैठे होते हैं। वे मूर्तिपूजक के अनेक दोष हूँढते हैं तथा न मिलने पर नये तैयार करते हैं । मूर्ति और उसकी पूजा सत्य से परिपूर्ण है। सुख-प्राप्ति का इससे बढ़कर अथवा उसकी बराबरी का अन्य कोई मार्ग अभी तक तो प्राप्त नहीं हुआ है। इस मार्ग को बताने वाले ज्ञानी पुरुष जितना ज्ञान, बुद्धि अथवा दूरदर्शिता वर्तमान के मनुष्यों में अभी तक प्रगट नहीं हो सकी है। परंतु बंदर को तो रत्न भी एक काँच का टुकड़ा मालूम होता है, उसी प्रकार अपरिपक्व बुद्धि वाले मूर्तिपूजा जैसे सर्वोत्तम अनुष्ठान को भी हानिकारक कहकर उसकी निन्दा करते हैं । "मूर्तिपूजा हानिकारक है, त्याज्य है, अतिशयोक्ति वाली है, पेट भरने वालों ने अपने स्वार्थ के लिये उत्पन्न की है, भेड़ चाल है, स्वतंत्र विचारों के लिए असमर्थ लोग ही बिना विचारे उसका आचरण कर रहे हैं, मूर्ति-पूजा से देश का पतन और बर्बादी होती है, मूर्ति पूजा से बुद्धि जड़ बनती जाती है ।" इस प्रकार अनेक तरह से, किसी प्रकार का अभ्यास किये बिना ही, मूर्तिपूजा के विरुद्ध अपूर्ण ज्ञानी लोग अपना अभिप्राय व्यक्त करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy