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जिन प्रतिमा के विषय में जिनकी आत्मा खंडित हुई है ऐसे दुर्बुद्धिों का हृदय इस प्रतिमा को देखकर सूख जाता है, नेत्र जल उठते हैं, और मुंह भस्मीभूत हो जाता है, जबकि प्रेम से इस प्रतिमा को अनिमेष दृष्टि से देखते हमको तो प्रानंदचन अमृत में डूबने का सुख निरंतर प्रगट होता है । (१०)
(११) मन्दारद्रुमचारुपुष्पनिकरैर्वन्दारकैरचितां, सदाभिनतस्य निर्वतिलताकन्दायमानस्य ते । निस्यन्दात रूपनास्तस्य जगती पान्तीममन्दामयावस्कन्दात् प्रतिमां जिनेन्द्र ! परमानंदाय वन्दामहे ।।
हे जिनेन्द्र ! उत्तम पुरुषों के द्वारा नमस्कृत एवं मुक्ति रूपी लता के कंद. समान प्रापकी प्रतिमा, जिसको देवताओं ने मंदार वृक्ष के पुष्पों से पूजी है और जो उग्र रोग को शोषण करने वाले स्नात्रजल रूप अमृत के झरने से सारे जगत् की रक्षा करतो है, ऐसी प्रतिमा को हम परम आनंद (मोक्ष) के लिये वंदना करते हैं। (११)
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