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२४५ - क्या यह प्रतिमा ब्रह्ममय है ? उत्सवमय है ? कल्याणमय है ? उन्नतिमय है ? सर्व शोभामय है ? इस प्रकार की कल्पना करते कवियों द्वारा देखी हुई तुम्हारी प्रतिमा सद्ध्यान के प्रसाद से सबको उल्लंघन करने वाली ज्ञानरूप तेज को बताती है । (८)
. (६) त्वद्रूपं परिवर्ततां हृदि मम ज्योतिःस्वरुपं प्रभो ! तावद् यावदरुपमुत्तमपदं निष्पापमाविर्भवेत । यत्रानन्दघने सुरासुरसुखं संपिडितं सर्वतो, भागेऽनन्ततमेऽपि नैति घटनां कालत्रयीसंभवि ॥
हे प्रभु ! पाप-नाशक, उत्तम पदस्वरूप और रूपरहित ऐसा अप्रतिप्राती ध्यान जब तक प्रकट नहीं हो जाता तब तक मेरे हृदय में आपका रूप अनेक प्रकार से ज्ञेयाकार रूप से परिणाम को प्राप्त हो ! जो आनन्दघन में त्रिकालसम्भवी और सभी ओर से एकत्रित सुर असुर का सुख अनन्तवे भाग का भी नहीं है । (६)
(१०) स्वान्तं शुष्यति दह्यते च नयनं भस्मीभवत्याननं, दृष्ट्वा तत्प्रतिमामपोह कुधियामित्याप्तलुप्तात्मनाम् । अस्माकं त्वनिमेषविस्मितदृशां रागादिमां पश्यतां, सान्द्रानन्दसुधानिमज्जनसुखं व्यक्तीभवत्यन्वहम् ॥
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