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ज्ञान से भ्रष्ट क्रिया करने वाला प्रांशिक आराधक है, पर
सर्वतः विराधक है ।"
इसीलिये कहा है कि"पढमं नाणं तओ दया"
अर्थात् - दया की अपेक्षा ज्ञान प्रथम श्रेणी में है ।
"हिंसा में पाप है" - ऐसा प्रथम ज्ञान होने से ही हिंसा के कार्य से दूर रहा जायेगा, अन्यथा नहीं । श्रतः शुद्ध ज्ञानपूर्वक की हुई क्रिया ही संसार से पार उतारने में समर्थ है, ऐसा समझकर सम्यग्ज्ञान का उपार्जन करने के लिये उद्यम करना चाहिये ।
परंतु यह ध्यान में रखना कि ज्ञान, दया पालने के लिये है, पर दया को एक ओर रखने के लिये नहीं । दया अथवा दया को लाने वाली क्रिया, इसकी ही यदि कीमत नहीं करें, तो इसके लिये प्राप्त ज्ञान की भी कीमत कुछ नहीं है । दुनिया में जीने की कीमत है, इसलिये खाने की कीमत है । यदि जीने की कीमत न होती तो इसे बनाये रखने के लिये खाने की भी कभी कोई कीमत नहीं हो सकती थी ।
इसी प्रकार दया की कीमत है और इसीलिये दया को लाने वाले ज्ञान की कीमत है । तप की कीमत है इसीलिये तप की महिमा समझाने वाले ज्ञान की कीमत है । श्री जिनपूजा कीमती है इसलिये श्री जिन और उसकी पूजा का प्रभाव समझाने वाले ज्ञान की कीमत है । इससे विपरीत समझाने वाले ज्ञान की कीमत, जैन शासन में फूटी कौडी के बराबर भी नहीं है ।
मोक्ष हेतु क्रिया के प्रति भाव पैदा करने वाले ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान माना है । मोक्ष जितना महान् है, उसकी प्राप्ति के
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