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"इस नाटक की भक्ति करके वे एकावतारीपन को प्राप्त हुई हैं"
कितने ही कहते हैं कि - मृगापृच्छा में भी साधु यदि मौन धारण करे तो वहाँ क्या अर्थ समझना ? मृगापृच्छा में साधु को मौन रहने का कहीं भी नहीं कहा है । श्री श्राचारांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध में कहा है कि
"जा वा नो जाग वदेज्जा"
अर्थात् - साधु जानता हो तो भी कहे कि मैं नहीं जानता हूँ, अथवा मैंने नहीं देखा, ऐसा ही कहे ।
श्री भगवती सूत्र के आठवें शतक के पहले उद्दस में लिखा है कि
"सच्च मणप्पओगपरिणय मोसवयाप्य श्रोगपरिणया"
अर्थात् - मृगापृच्छादि में मन में तो सत्य है और वचन में मिया है ।
श्री सूयगडांग सूत्र के आठवें अध्ययन में भगवान् फरमाते हैं कि
"सादियां मुसं बूया, एस घम्मे वुसीमनो"
मृगा पृच्छादि बिना असत्य न बोले, यह संयमियों का धर्म है । अर्थात् उस समय असत्य भाषा बोले, ऐसी प्रभु की आज्ञा है ।
प्रश्न ६८ - ज्ञान की महत्ता विशेष है या क्रिया की ?
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