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तथा दूसरे सूत्रकारों ने भी इस कार्य में भक्ति का समावेश किया है और इसी कारण उसका निषेध नहीं किया ।
अगर मौन रहने का अर्थ निषेधं ही करें तो श्री - भगवती सूत्र के ११ वें शतक में कहा है कि - श्री वीरप्रभु के मुख से बहुत से श्रावकों ने ऋषिभद्र की प्रशंसा सुनकर उनको चंदन किया, अपराधों की क्षमा मांगी तथा बारहवें शतक में भी ऐसा उल्लेख है कि भगवान् के मुख से शंखजी श्रावक की प्रशंसा सुनकर श्रावकों ने उनकी खूब ही वंदना की तथा बहुत से श्रावकों ने उनसे क्षमा याचना की । इन दोनों प्रसंगों पर भगवान् चुप रहे । यदि भगवान् के मौन के कारण इन कार्यों को उनकी श्राज्ञा के विरुद्ध कहोगे तो यह कोई नहीं मानेगा कारण यह है कि - 'भगवान् ने सब कुछ जानते हुए भी ऊपर माफिक श्रावकों की प्रशंसा क्यों की तथा वंदन करते हुए
वकों को क्यों नहीं रोका ? ऐसा प्रश्न खड़ा होगा ।
श्री जीवाभोगम, श्री भगवतीजी तथा श्री ठाणांगसूत्र में -देवतागरण श्री नंदीश्वर द्वीप में अट्ठाई महोत्सव, नाटक इत्यादि करते हैं, उनको आराधक कहा है, न कि विराधक ।
श्री रायपसेणी सूत्र में भी सूर्याभदेव के सेवकों ने - समवसरण के विषय में भगवान् से कहा, तब भगवान् ने उनकी प्रशंसा की है । श्री ज्ञातासूत्र आदि में कहा है कि श्री पाश्वनाथजी की अनेक साध्वियां चारित्र विरोधी, तपस्विनियाँ, बनी और अज्ञान तपस्या के प्रभाव से श्री महावीर परमात्मा के सम्मुख उन्होंने कई प्रकार के नाटक, किये जिसका फल गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान् ने फरमाया कि
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