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उनका मुरणानुवाद करने का उत्तम प्रसंग मिलता है। यह बुद्धि निर्मल होने का एक विशेष साधन है तथा पूज्य पुरुष जिस राह पर चलकर गुणवान हुये, उस राह पर चलने की हमारी भी इच्छा होती है। उस समय संसार असार सा लगता है तथा उससे विरक्त होकर मन आत्मचिन्तन करता है। परभाव में रमण करने की इच्छा नहीं होती। आत्मिक गुरगों को प्रगट करने के अनेक साधन प्राप्त होने से उसमें प्रयत्नशील बना जा सकता है।
जिस २ प्रकार से आत्मविशुद्धि हो सकती है, उन सब उपायों को जुटाने का बहुमूल्य अवसर मिलता है । कितने ही ध्यान-प्रिय लोग पहाड़ की गुफाओं में जाकर, एकांत में बैठ कर मात्मा तथा जड़ के विभाग तथा दोनों में रहने वाली भिन्नता का विचार करते हैं, धर्मध्यान में तल्लीन बनते हैं और शुक्ल ध्यानादि ध्यान किया जा सके, उसके लिये अभ्यास करते हैं।
__ अधिक शुद्धि का दूसरा कारण भी यह है कि उत्तम मनुष्यों के शरीर के पुद्गल-परमाणु वहाँ फैले हुए हैं। वे सब उत्तम होते हैं । जब भी क्षपक श्रेणी करने की इच्छा हो तब वजऋषभनाराच संघयण की परम आवश्यकता है। उसके बिना उत्तम ध्यान हो ही नहीं सकता। इससे पुद्गल को सहायता भी आवश्यक है।
जिन व्यक्तियों की मुक्ति निकट में होती है, ऐसे उत्तम पुरुषों के शरीर में ध्यान को पुष्ट करने वाले पुद्गल एकत्रित हो चुके होते हैं। अब वे तो निर्वाण को प्राप्त हो चुके हैं, परन्तु
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