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२२४ 'चैत्य' शब्द का अर्थ 'ज्ञान' करना, यह भी सर्वथा असत्य है क्योंकि श्री नंदी सूत्रादि में जहाँ २ पाँच प्रकार के ज्ञान का अधिकार है वहाँ वहाँ
"नाणं पंचविह पण्णत्तं।" ऐसा कहा है पर"चेइयं पंचविह पण्णत्तं ।"
ऐसा तो कहीं नहीं लिखा। तथा उसका नाम मतिज्ञान, श्रु तज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान कहा है पर मतिचैत्य, श्रु तचैत्य अथवा केवलचैत्य इत्यादि किसी जगह नहीं लिखा तथा उस ज्ञान के स्वामी को मतिज्ञानी, श्रु तज्ञानी, केवलज्ञानी इत्यादि शब्दों से परिचित करवाया है न कि मतिचैत्यी, श्र तचैत्यी अथवा केवलचैत्यी शब्दों से । किसी को जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ तो उसे 'जातिस्मरणज्ञान' हुआ, ऐसा कहा है पर 'जातिस्मरणचैत्य' उत्पन्न हुआ, ऐसा नहीं लिखा।
श्री भगवती सूत्र में जंघाचारण-विद्याचरण मुनियों के अधिकार मैं 'चेइयाई' शब्द है तथा दूसरे बहुत से स्थानों पर वह शब्द प्रयुक्त हुआ है। उसका अर्थ यदि ज्ञान करते हैं तो ज्ञान. तो एकवचन में है जबकि 'चेइयाई' बहुवचन में है। अतः वह अर्थ गलत है । पुनः श्री नंदीश्वरद्वीप में अरूपी ज्ञान का ध्यान करने के लिये जाने की क्या जरूरत है ? अपने स्थान पर बैठे हुए वह ध्यान हो सकता है अतः वहाँ प्रतिमाओं से ही तात्पर्य है। .. अब चैत्य का अर्थ साधु अथवा ज्ञान करने वाले भी कई जगह प्रतिमा का अर्थ करते हैं। उनके थोड़े से दृष्टांत
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