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________________ १० होते हैं । कोई सम्बन्ध कार्यकारण रूप होता है तो कोई जन्य - जनक रूप; कोई स्व-स्वामित्व रूप होता है तो कोई तादात्मय तथा तदुत्पत्ति रूप भी होता है । अग्नि और धुएँ का कार्य-कारण रूप सम्बन्ध है तथा कुम्हार एवं घड़े का जन्य-जनक रूप । मालिक और नौकर का स्व-स्वामित्व रूप, घड़ा और घड़े के स्वरूप का तादात्मय रूप तथा घड़े और मिट्टी का तदुत्पत्ति रूप सम्बन्ध होता है । इसी भांति शब्द एवं अर्थ का तथा स्थापना और स्थाप्य का भी परस्पर सम्बन्ध है जो क्रम से वाच्य - वाचक तथा स्थाप्य स्थापक सम्बन्ध कहलाता है ! जिस प्रकार धुँए के ज्ञान के साथ इसके कारण रूप अग्नि का ज्ञान भी ज्ञाता को होता है परन्तु उसके कारण के रूप में अग्नि को छोड़ कर अन्य किसी वस्तु का ज्ञान नहीं होता अथवा घड़े को देखते ही उसके निर्माता के रूप में कुम्हार का ज्ञान होता है न कि किसी और का अथवा तो उसके उपादान के रूप में मिट्टी का ज्ञान होता है परन्तु तंतु आदि का ज्ञान नहीं होता है, इसी प्रकार अग्नि अथवा घड़ा शब्द सुनते ही प्रत्येक को अग्नि और घड़े का ही निश्चित बोध होता है; परन्तु अन्य किसी पदार्थ का बोध नहीं होता, अथवा अग्नि या घड़े का चित्र देखकर दर्शक को अग्नि और घड़े का ही स्मरण हो आता है; अन्य किसी पदार्थ का स्मरण नहीं होता है । यह बात निश्चित रूप से यह बताती है कि कार्य-कारण सम्बन्ध की भाँति वस्तु का वाच्य वाचक एवं स्थाप्य स्थापक आदि सम्बन्ध भी विद्यमान है । कार्य-कारण सम्बन्ध को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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