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________________ पपात " " । (३७) श्री जिनपतिसूरिकृत समाचारी प्रकरण । (३८) श्री अभयदेवसूरिकृत (३६) श्री जिनप्रभसूरिकृत , , । इस प्रकार सैंकड़ों आचार्यों के प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर मूर्ति पूजा की जाती है। अब इनमें से कौनसे प्राचार्यों को साक्द्याचार्य कहा जाय ? कदाचित् ऐसा कहा जाय कि'पूर्वधरों के समय में ज्ञान कंठस्थ था पर बाद में उसे पुस्तकारूढ़ करने में आया, अतः मानने में शंका रहती है'-परन्तु यह कहना यथार्थ नहीं है, क्योंकि उस समय में भी पुस्तकों के सर्वथा अभाव का उल्लेख कहीं नहीं है। क्या श्री ऋषभदेव स्वामी द्वारा चलाई गई लिपि का विच्छेद हो गया था ? यदि हाँ ! तो फिर लोगों के काम किस तरह चलते होंगे ? .. ____ फिर दूसरा प्रमाण यह है कि श्री वीर प्रभु के ६८० वर्ष पश्चात्, श्री देवद्धिगरिग क्षमाश्रमणादि सैकड़ों प्राचार्यों ने मिलकर एक करोड़ से भी अधिक पुस्तकें बनाई। उस समय आचार्यों से परम्परागत प्राप्त ज्ञान अविच्छिन्न रूप से पुस्तकों में बराबर यथातथ्य उतारने में पाया, उसमें से बहुत से ग्रन्थ, जो सैकड़ों वर्ष पूर्व के लिखे हुए हैं, ज्ञान भंडारों में मौजूद हैं। . .. - उस समय उन आचार्यों के कोई प्रतिपक्षी हुए हों तो उनकी तरफ से भी उस समय की लिखी पुस्तकें प्रमाण रूप में मौजूद होनी चाहिये, पर ऐसा लगता नहीं। तो फिर धर्म के स्तम्भ रूप पंडित पुरुषों और उनकी रचनाओं की अवज्ञा करने से महापाप के भागी बनने के सिवाय दूसरा क्या फल मिल सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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