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ने एकत्रित होकर करोड़ों ग्रन्थों की रचना की अतः उन तमाम ग्रन्थों को भी निरर्थक मानना पड़ेगा। और यदि ऐसा हो तो जैनधर्म रहेगा ही कहाँ ।
एक मूर्ख व्यक्ति भी समझ सकता है कि दुष्काल वर्ष में नैवेद्यादि पूजा का खर्च बढ़ाने के उपदेश का प्रचार कैसे बढ़ सकता है ? उस समय लोग खर्च घटाने के उपदेश को ही ग्रहण करते हैं । और मूर्ति के सामने रक्खा हुआ अन्न आदि साधु के काम नहीं प्राता, यह बात क्या उस समय लोग नहीं जानते थे ? साधु अपने स्वार्थवश ऐसा उपदेश करे तो भी उस समय का समाज उसे कैसे चलने देगा | नैवेद्य पूजा आदि उस समय शुरू हुई तो मूर्ति तो पहले थी ही, यह तो सिद्ध हो गया ।
साक्षात् 'सरस्वती' आदि तथा अन्य देवी देवता जो हर समय जिन महात्मानों की सेवा में उपस्थित रहते थे, ऐसे शासन प्रेमी धुरंधर प्राचार्यों को स्वार्थी मानना तथा आज-कल के निर्बुद्धि पुरुषों को निस्वार्थी कहना कितना असंगत है ? लाखों वर्षों से विद्यमान मूर्तियाँ तथा हजारों वर्ष पूर्व लिखित पुस्तकें अप्रामाणिक एवं आधुनिक मन घड़न्त कल्पनाएँ प्रामाणिक ऐसा तो कैसे मान सकते हैं ?
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श्री जिनप्रतिमा की पूजा-भक्ति, हाल में श्रद्धालु श्रावकवर्ग के द्वारा करने में आती है । उसके लिए तथा पूजा के समय श्री जिनेश्वरदेव की पिण्डस्थादि तोनों अवस्थाओं का प्रारोपण करने में आता है उसके लिये सैंकड़ों सूत्रों के आधार हैं जिनमें से कितने ही सूत्रों के नाम मात्र नीचे दिये जाते हैं । इन सूत्रों तथा इनके रचनाकारों की प्रामाणिकता में किसी के दो मत नहीं हैं
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