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में बढ़कर महान् समृद्धिशाली व देवगति अथवा सर्वोत्कृष्ट अक्षय स्थिति को क्रमशः प्राप्त करने वाला समझना; जिसने मूलधन ( मनुष्य भव) को यथावत् कायम रक्खा वह मरकर पुनः मनुष्य योनि में ही आया, कुछ घटा बढ़ा नहीं, ऐसा समझना; किंतु तीसरा तो असली रकम भी गुमा बैठा, दिवालिया बन गया, इससे वह मनुष्यगति रूपी उत्तम रत्न को हारकर कर्मवश नरक तिर्यंच रूपी नीच गति में जा पड़ा, ऐसा समझना ।
संक्षेप में कहा जाय तो आत्मिक शक्ति का अभाव अथवा उसकी वृद्धि के प्रति उदासीनता यह मूलधन खोकर दरिद्र बनने के समान है । जिस सत्कृत्य से तीर्थंकर गोत्र भी बँधता है ऐसे प्रभावशाली सत्कृत्य का अनादर करने वाले लोग अपने बैठने की डाली को ही तोड़ते हैं । इतना ही नहीं पर जिस महान् पुण्य के फल से यह श्रेष्ठ मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है, उसकी जड़ को दुराग्रह रूपी कुल्हाड़ी से काटने की प्रवृत्ति करते हैं ।
प्रश्न ५६ - श्री जिनपूजादि कार्य करना, यह तो व्यवहार धर्म है । जो निश्चय को प्राप्त हो चुके हैं, उनके लिए ऐसे अधर्मकार्य की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर -- जो व्यवहार धर्म को छोड़कर, केवल निश्चय धर्म की साधना करने जाते हैं, वे दोनों से चूकते हैं, क्योंकि श्री जिनमार्ग में शुद्ध व्यवहार को प्रधान पद दिया गया है, केवल निश्चय को नहीं। यह साबित करने के लिए अनेक दृष्टांत हैं । जैसे
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(१) श्री भरतराजा को केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद भी वेश 'बदलना पड़ा, तो क्या ऐसा किये बिना केवलज्ञान वापिस चला
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