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सत्रह प्रकार की पूजा के चरित्र में कहा है । सत्रह प्रकार की पूजा का सविस्तार वर्णन श्री रायपसेणी सूत्र में है ।
(१७) श्री जिन प्रतिमा की पूजा भक्ति करने से श्री शांतिनाथ स्वामी के जीव ने श्री तीर्थंकर गोत्र का बंध किया था, ऐसा प्रथमानुयोग सूत्र में कहा है ।
(१८) श्री भगवती सूत्र में ऐसा कहा है कि तीर्थंकर का नाम तथा गोत्र सुनने से भी महा पुण्य होता है, तो प्रतिमा में तो उनके नाम तथा स्थापना दोनों हैं अतः उन दोनों की पूजा होने से विशेष पुण्य हो, इसमें क्या प्राश्चर्य ?
(१६) श्री श्रेणिक राजा ने श्री जिनेश्वरदेव की प्रतिमा की आराधना से तीर्थंकर गोत्र बाँधा, ऐसा अधिकार योग-शास्त्र में है ।
(२०) श्री महानिशीथ सूत्र में श्री जिन मंदिर बनवाने वाला बारहवें देवलोक में जाता है ऐसा कहा है ।
ऐसे सैकड़ों मूल सूत्र तथा नियुक्ति आदि के प्रमाणों से मूर्ति पूजा उत्तम फल देनेवाली सिद्ध होती है ।
वर्तमान में कई लोग अपने प्रात्मिक धन का अभिमान करके, निश्चय को आगे कर द्रव्यरहित, केवल भाव को ही पुकारते हैं और इसके द्वारा अपनी स्वार्थ सिद्धि का आडम्बर करते हैं; परन्तु ऐसा करने से थोड़ा बहुत भी जो आत्मिक धन होता है उसे भी अपने अहम् अथवा अहंकार से खोकर वे निर्धन बन जाते हैं । इस विषय में उत्तराध्ययन सूत्र में एक दृष्टांत है |
किसी साहूकार ने अपने तीन पुत्रों की परीक्षा लेने के लिए :
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