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प्रश्न ५६-जिस द्रव्यपूजा को साधु नहीं करता उसका उपदेश देकर दूसरों से करवाने से क्या लाभ ?
उत्तर---पंचमहाव्रतधारिणी साध्वी को साधू नमस्कार न करे, वैयावच्च न करे परन्तु श्रावकों को उपदेश देकर आहार दिलावे, वंदना करावे, दूसरी साध्वी को कहकर वैयावच्च करावे तथा करने वाले को अच्छा समझे । साथ ही साधु अपने दीक्षित शिष्य को वंदन न करे पर दूसरे से वंदन करावे ।
दूसरी दृष्टि से देखें तो गरीबों को दान देना, साधर्मिक वात्सल्य करना, तपस्वियों को पारणा कराना, मुनिराज को खपती योग्य वस्तुओं की पूर्ति करना आदि धर्म के अनेक कार्य हैं। फिर भी साधु का प्राचार न होने से वह यह सब न करे. पर श्रावकों को ऐसा करने का उपदेश दे तथा उसकी अनुमोदना करे। इस न्याय से साधु सर्वथा द्रव्य के त्यागी और निरारंभी होने से द्रव्यपूजा न करे, पर उपदेश द्वारा करावे तथा उसकी अनुमोदना करे।
प्रश्न ५७ --- श्रावक के बारह व्रतों में श्री जिनमूति की द्रव्यपूजा कौनसे व्रत में आती है ?
उत्तर-जिसके बिना सभी व्रत निष्फल हैं, ऐसी समस्त शुभ क्रियाओं का मूल सम्यक्त्व है उसके करने में श्रावक को गृहस्थावास में रहते हुए भी श्री जिनमूर्ति की द्रव्य-भाव पूजा करना उचित है। देव तो श्री अरिहंतदेव, गुरु तो श्री जैन धर्म के शुद्ध गुरु और धर्म तो केवली प्रणित सत्य धर्म । ये तीनों वस्तुएँ चारों निक्षेपों से सभी को वंदनीय एवं पूजनीय हैं। इनको मानने वाला सम्यग्दृष्टि और नहीं मानने वाला मिथ्या
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