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तर्क-ऐसे तो धर्म के निमित्त मांसाहार करते हुए भी कोई शुभ भाव रक्खे, तो उसे भी पाप नहीं लगना चाहिये।
समाधान-यदि मांसाहार करने से बुद्धि तथा परिणाम शुद्ध रहते हों तो सर्वज्ञ परमात्मा को भक्ष्याभक्ष्य का भेद बताने की जरूरत ही नहीं होती। विद्वान् डॉक्टर भी मांसाहार को अच्छी बुद्धि प्रदायक नहीं मानते । इसके विपरीत वे इसका निषेध करते हैं ।
अन्न, जल आदि भक्ष्य पदार्थ निर्विकारी, निरोगी, पौष्टिक तथा शारीरिक एवं मानसिक बल की वृद्धि करने वाले हैं, जबकि मांस, मदिरा आदि अभक्ष्य वस्तुएँ विकार करने वाली, रोग बढ़ाने वाली, शरीर तथा मन को बिगाड़ने वाली तथा कुबुद्धि और निर्दयता का कारण होने के कारण अग्राह्य है। उनके खाने से शुभ भावना कैसे हो सकती है ? "अन्न जैसी डकार" "और जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन" 'कहावतों को भूलना नहीं चाहिये। ___ एकेन्द्रिय तो केवल अव्यक्त चेतनावाले है । उसकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय का अनंतगुणा पुण्य है। इस प्रकार क्रमश: पंचेन्द्रिय जीवों की पुण्याई, उनसे अनंतगुणी है। तो उनको मारने से पाप भी एकेन्द्रिय की अपेक्षा अनंतगुणा विशेष है।
और उनको मारने में तीक्ष्ण शस्त्र का उपयोग करते समय क्रोध तथा निर्दयता आदि धारण करनी पड़ती है, जिससे निष्ठुर परिणाम तो प्रारम्भ में ही हो चुके होते हैं तथा मांस में समय २ पर पंचेन्द्रिय (समूच्छिम) जीवों की उत्पत्ति तथा विनाश हुना करता है। इसी कारण अनंतज्ञानी सर्वज्ञ परमात्माओं ने ऐसी घोर हिंसा का सर्वथा निषेध किया है तथा अल्प पाप के
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