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________________ १६५ को लग ही नहीं पाता । तीसरा विभाग श्री प्रसन्नचंद्र राजषि जैसे का जानना और चौथा विभाग सर्वविरति साधु संबंधी है। द्रव्य पूजा करने से हिंसा का पाप लगने का कोई कारण नहीं है। __ श्री ठाणांगसूत्र के पाँचवें ठाणे के दूसरे उपदेश में कर्मबंधन के पाँच द्वार बताए हैं। "पंच आसवदारा पन्नता, तंजहा-(१) मिच्छतं (२) अविरई (३) पमानो (४) कषाय (५) जोगा" अर्थ-पापबन्ध के पांच कारण बताये हैं (१) मिथ्यात्व (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय और (५) योग जब कि प्रभु पूजा शांत चित्त से, सम्यक्त्वसहित, प्रमाद रहित एवं विधि पूर्वक होने से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद तथा कषाय आदि चार प्रकार से कर्मबंध होना तनिक भी संभव नहीं है। पाँचवा "योग" निमित्त रहा। श्री भगवती सूत्र में (१) शुभ योग तथा (२) अशुभ योग-योग के ऐसे दो प्रकार बताये हैं। शुभ योग पुण्यबंध का तथा अशुभयोग पापबंध का कारण है। श्री जिनपूजा में किसी प्रकार की निंदा अथवा अवर्णवाद आदि न होने से अशुभ योग तो कहा ही नहीं जा सकता। केवल श्री जिनेश्वरदेव की भक्ति, गुणगान, स्तुति आदि के कारण शुभ योग ही कहा जाता है और जितनी मात्रा में वह होगा, उतनी ही मात्रा में शुभ बंध पड़ेगा। क्योंकि कारण बिना कार्य पैदा नहीं होता। द्रव्य पूजा में अशुभबंध के कारण का अभाव होने से शुभ फल हो होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only ____www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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