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तथा जीव रक्षा का प्रयत्न भी नहीं है, वह अनुबंध हिंसा कहलाती है ।
इसी प्रकार अहिंसा के लिये भी समझ लेना ।
श्री जिनपूजादि धर्म कार्य में स्वरूप से हिंसा है, पर हिंसा का भाव न होने के कारण अनुबंध अहिंसा का पड़ता है । जब तक मन, वचन और काया के योग से सम्पूर्ण स्थिरता नहीं हो जाती तब तक बोलते, उठते ऐसे प्रत्येक कार्य करते प्रारंभ तथा उससे अल्पाधिक कर्मबंधन होता ही रहता है । ऐसी दशा में सर्वथा अहिंसा किसी भी कार्य में किस प्रकार हो सकती है ?
श्री ठाणांग सूत्र के चौथे ठाण में चतुभंगी कही है ! (१) सावद्य व्यापार और सावद्य परिणाम
(२) सावद्य व्यापार और निरवद्य परिणाम
(३) निरवद्य व्यापार और सावद्य परिणाम
(४) निरवद्य व्यापार और निरवद्य परिणाम
इसमें प्रथम विभाग मिथ्यात्व के प्राश्रय का है । दूसरा विभाग सम्यग्दृष्टि तथा देशविरति श्रावक का है क्योंकि श्रावक के योग्य देवपूजा, साधुवंदन आदि धार्मिक कार्यों में दिखने में तो वे सावद्य व्यापार मालूम होते हैं, पर उसमें श्रावक के परिणाम हिंसा के न होने के कारण वह केवल स्वरूप हिंसा है । जिसका पाप आकाश कुसुम की तरह आत्मा
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