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१६२ उसके उत्तर में कहने का है कि, महान पुरुष कदापि ऐसा नहीं कहते कि 'मेरी भक्ति करो', 'मेरी वंदना करो' अथवा 'मेरी पूजा करो' । पर श्री गणधर महाराज की बताई हुई शास्त्रयुक्त विधि के अनुसार पूजन करने से सेवक वर्ग का अवश्य कल्याण होता है । जैसे साधु स्वयं को लक्ष्य कर नहीं कहता कि, 'मेरी भक्ति-सेवा करो' पर उपदेश द्वारा सामान्य रीति से गुरु भक्ति का स्वरूप बतावे, सुपात्रदान की महिमा समझावे तथा भक्त जन तदनुसार आचरण करें, तो इससे साधु को अपनी भक्ति का उपदेश देने वाला नहीं गिना जाता, क्योंकि समुदाय की भक्ति के उपदेश में व्यक्ति का प्रवर्तकपन नहीं गिना जाता।
प्रश्न ५२-किसी जीव को मारना, छः काय का संहार करना, यह हिंसा है तथा जीव पर दया लाकर उसे न मारना, छः काय की रक्षा करना, यह धर्म है तो फिर जानबूझकर जीवहिंसा से धर्म कैसे होता है ?
उत्तर-यह प्रश्न एकांतवादी का है। पहले साधु, साध्वी तथा श्रावकों के लिये जिस काम को करने की प्राज्ञा बतायी गयी है, उसमें क्या हिंसा नहीं ? अवश्य है; पर यह हिंसा केवल द्रव्य हिंसा है, मारने के द्वेष रूप परिणाम से की हुई हिंसा नहीं। इसलिये वह हिंसा पापकारी अथवा भाव हिंसा नहीं मानी जाती। बाकी हिंसा तो श्वास लेते, हाथ-पैर हिलाते और चलते बैठते हुअा ही करती है । प्रायः कोई भी कार्य ऐसा नहीं जिसमें द्रव्य हिंसा न होती हो ।
अब ऊपर के कामों में होने वाली हिंसा अनजाने होती है, ऐसा कहना भी अनुचित है क्योंकि आहार, निहार, विहार
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