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१६१ (५) किसी को दीक्षा लेने की इच्छा है। उसे ओघा, मुहपत्ति, वस्त्र, पात्र की जरूरत है । यदि ये वस्तुएँ कोई श्रावक देता है, तो उसमें धर्म है या अधर्म ?
(६) साधु का आगमन जानकर दूर तक सामने जावे, विहार करते जानकर रोकने जावे, सैंकड़ों कोस दूर तक वंदन करने जावे, कल्पनीय वस्तुओं की व्यवस्था कर दे, दीक्षामहोत्सव, मरणमहोत्सव आदि करे, इन सब कामों में पंचेन्द्रिय तक के जीवों की प्रत्यक्ष हिंसा होती है। फिर भी ऐसा करने में धर्म होता है अथवा अधर्म ?
(७) श्री मल्लिनाथ स्वामी ने छः राजाओं को प्रतिबोध देने के उद्देश्य से मोहन घर बनाकर अपने ऊपर के मोह को दूर करने के लिये, अपने स्वरूप की एक प्रतिमा खड़ी की तथा उसमें नित्य आहार पानी डालते, उसमें लाखों जीवों की उत्पत्ति हई और उनका नाश हुआ फिर भी भगवान् को उसका पाप नहीं लगा। वे तो उसी भव में मोक्ष सिधारे। उससे यदि पाप वृद्धि होती तो वे ऐसा क्यों करते तथा करने पर भी मोक्ष कैसे प्राप्त करते ?
इस तरह आज्ञा सहित के कार्यों में स्वरूप हिंसा होती है परन्तु परिणाम की विशुद्धता से अनुबंध रूप से 'दया है' ऐसा समझना चाहिये।
यहाँ पर कोई शंका करे कि
"श्री तीर्थंकरदेव अपनी भक्ति के लिये छः काय जीवों के 'संहार की आज्ञा किस प्रकार दे सकते हैं ?"
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