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यहाँ ऐसा कहोगे कि, 'द्रव्य पूजा में तो प्रत्यक्ष हिंसा दिखाई देती है तो उसमें धर्म कैसे हो सकता है ? तो ऐसा कहना भी उचित नहीं ।' 'प्रत्यक्ष जीव को नहीं मारना !' इसी को यदि अहिंसक भाव मानोगे तो सूक्ष्म एकेन्द्रिय ( लोकव्यापी पाँच स्थावर ) में शुद्ध अहिंसक भाव मानना चाहिए क्योंकि वे बिचारे तो हिंसा का नाम निशान भी नहीं समझते और किसी भी जीव की पीड़ा में निमित्त नहीं बनते । इसलिए वे ही शुद्ध हिंसक सिद्ध होंगे और यदि वे अहिंसक सिद्ध होते हैं, तो सर्वप्रथम मुक्ति भी उन्हीं जीवों की होनी चाहिए ।
परन्तु ऐसी विपरीतता तीन काल में भी सम्भव नहीं । अतः सच्ची अहिंसा की व्याख्या जीव को नहीं मारना" इतनी ही नहीं किन्तु 'विषय कषाय रूप प्रमाद के योग से जीव को नहीं मारना' इसी का नाम सच्ची अहिंसा है। श्री जिनपूजा में प्रमाद का अध्यवसाय नहीं, पर भक्ति का शुभ श्रध्यवसाय है और इसलिये उसे जैन शास्त्रानुसार हिंसा कभी भी नहीं कही
जा सकता ।
इस प्रकार जो व्यक्ति द्रव्य तथा भाव अहिंसा का स्वरूप जानकर अहिंसा का ग्रादर करता है वही सच्चा अहिंसक गिना जाता है; शेष लोग तो 'दरवाजे चोड़े और मोरी बंद ? की कहावत का अनुसरण कर अहिंसा के सच्चे मार्ग से भटक जाते हैं ।
कितने ही कामों में प्रत्यक्ष हिंसा आदि होते हुए भी उन २ कार्यों को ऐसे २ प्रसंगों पर आदर देने की प्रज्ञा, शास्त्रकारों ने साधु मुनिराज को फरमाई है । जैसे कि
(१) श्री भगवतीजी में कहा है कि श्री संघ का कारण प्रा
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