SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८७ उत्तर--मात्र एक पद बोलकर शेष गाथा छोड़ देने से अर्थ का अनर्थ होता है। पूरी गाथा का पूर्वापर सम्बन्ध मिलाकर अर्थ करने से ही सत्य पदार्थ का ज्ञान होता है । वह पूरी गाथा ऐसा अर्थ बताती है कि, 'प्रारम्भ में दया नहीं, सारंभ बिना महापुण्य नहीं, पुण्य के बिना कर्म की निर्जरा नहीं तथा कर्म की निर्जरा बिना मोक्ष नहीं।' ऐसा कौनसा कार्य है जिसमें प्रारम्भ अर्थात् द्रव्य हिंसा न होती हो ? परन्तु क्रिया की प्रशस्तता तथा इस समय आत्मा का भाव आदि खास विचारना चाहिए। शुभ भाव में रहने से पाप नहीं होता। इसके लिये श्री भगवती सूत्र में फरमाया "शुभ जोगंपडुच्च अणारंभो।" अर्थात् जहाँ मन, वचन, काया का शुभ योग होता है, ऐसे प्रारम्भ को श्री तीर्थंकर देव अनारम्भ कहते हैं। इससे कर्म बंधन नहीं होता। साधु नदी उतरता है, विहार करता है, गोचरी करता है, 'पडिलेहण करता है, ये सभी कार्य वह जान-बूझकर करता है। अगर अनजान में करने का कहोगे, तो बड़ा दोष लगेगा क्योंकि साधु को यदि करने व न करने योग्य कार्य का ज्ञान ही नहीं, तो वह शंकारहित सम्यग्दृष्टि किस प्रकार कहलायेगा? जैसे उन कामों में भगवान् को आज्ञा है और साधु शुभ भाव में होने से कर्म नहीं बंधते वैसे ही श्रावक को भी द्रव्य पूजा में तथा -साधु को आहार देने में श्री जिनाज्ञा है। उसमें जो हिंसा दिखाई देती है वह, स्वरूप हिंसा होने से तथा उसका परिणाम हिंसा का न होकर देवगुरु की भक्ति का होने से, अनारंभी होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003200
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherVimal Prakashan Trust Ahmedabad
Publication Year1981
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy