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१८६ नहीं है"-यह वाक्य तो राजाधिराज अर्थात् सर्वोत्तम है । अतः इच्छा तृष्णा रहित भगवान् सर्वपात्र शिरोमणि सुपात्र हैं । उनके सम्मुख द्रव्य चढ़ाकर पूजा करते समय प्रथम “दान धर्म" सरलता से सिद्ध होता है।
दूसरा शीलधर्म-पाँचों इन्द्रियों को वश में रखने को शीलधर्म कहते है । गृहस्थ जव भावयुक्त द्रव्य पूजा करता है तब पाँचों इन्द्रियाँ संवरभाव को प्राप्त करती हैं। इससे शीलधर्म सिद्ध होता है।
तीसरा तपोधर्म-यह छः बाह्य तथा छः आभ्यंतर, ऐसे बारह प्रकार का होता है। उसमें जिनप्रतिमा को पूजते समय पूजनकाल में चारों प्रकार के आहार का त्याग होने से बाह्य तप हुमा तथा भगवान् का विनय, वैयावच्च, ध्यान आदि करने से प्रांतरिक तप हुआ।
चौथा भावधर्म- शुभ भावना होने के कारण ही श्रावक पूजा करता है। हजारों, लाखों रुपये खर्च करके मन्दिर आदि बनवाना, बिना भाव के प्रायः अशक्य है। पूजन करते समय श्री तीर्थंकर देवों के पाँचों कल्याणकों की भावना करना, यह भी भावधर्म है।
इस प्रकार विवेक पूर्वक विचार करने से हम समझ सकते हैं कि श्री जिनेश्वर की मूर्ति पूजा में भी चारों प्रकार के धर्मों की एक साथ आराधना होती है ।
प्रश्न ५१-- "प्रारम्भे नत्थि दया।" यह सूत्र वचन है जिसके अनुसार दया में ही धर्म हैं पर प्रारम्भ में नहीं। श्री जिनपूजा में तो प्रारम्भ होता है तो फिर उससे धर्म कैसे हो सकता है ?
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