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१८५ प्रकार के हैं। एक रत्नपात्र तथा दूसरा स्वर्ण पात्र । श्री तीर्थंकर और सिद्ध कर्मरहित, पाशा-तृष्णारहित रत्नपात्र हैं। उनको उत्तम पदार्थ अर्पण करना-अकर्मी सुपात्रदान गिना जाता है । दूसरा मकर्मी सुपात्र स्वर्णपात्र वह सुसाधु । उनको दान देना वह सकर्मी सुपात्रदान कहलाता है। साधु आठ कर्मों से संयुक्त होते हैं. उनको छः लेश्या भी होती हैं, भूख-प्यास शांत करने के लिये तथा सर्दी गर्मी को दूर करने के लिये अनेक वस्तुओं के अभिलाषी भी होते हैं।
सिद्ध परमात्मा तथा केवली भगवंतों की तुलना में छद्मस्थ साधु अल्प पूज्य हैं, फिर भी उनको दान देते हुए गृहस्थ पुण्य उर्जन का महान लाभ प्राप्त करते हैं तथा धीरे-धीरे मोक्ष को भी प्राप्त कर सकते हैं तो फिर इच्छारहित, अकर्मी ऐसे श्री सिद्ध भगवान् के सामने भावयुक्त उत्तमोत्तम द्रव्य अर्पण करने से आठ सिद्धि, नवनिधि तथा मुक्तिपद की प्राप्ति हो जाती है, इसमें कोई शंका नहीं हो सकती। एक स्थान पर कहा है कि"देहीति वाक्यं वचनेषु नेष्टं,
नास्तीति वाक्यं ततः कनिष्टं । गृहारण वाक्यं वचनेषु राजा,
नेच्छामि वाक्यं राजाधिराजः ॥११॥ भावार्थ-किसी वस्तु की याचना करना कि-"मुझे वह वस्तु दो" यह महा नीच वचन है। वस्तु माँगने पर भी नहीं देना और मना करना यह उससे भी नीच वचन है। वस्तु सामने लाकर कहना कि, 'यह वस्तु लो'यह राजवचन अर्थात् उत्तम वचन है। और लेने वाला व्यक्ति कहे कि "मेरी इच्छा
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